Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४३३-१४७४
___ पट्टावल्यादि ग्रन्थों से पाया जाता है कि फलवृद्धि के पार्श्वनाथ मन्दिर का जो अवशिष्ट काम रह गया था उसको नागपुर के सुरागों ने पूरा करवा कर वि० सं० १२०४ में पुनः वादी देव सूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई थी। फलौदी के मन्दिर में इस समय कोई लेख नहीं है पर एक डेहरी के पत्थर पर निम्न शिला लेख है
“संवत् १२२१ मार्गसिर सुदि ६ श्री फलवर्द्धिकायां देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ चैत्ये श्रीप्राग्वट वंशीय रोपिमुणि मं० दसादाभ्यो आत्म श्रेयार्थ श्रीचित्रकूटीय सिलफट सहितं चंद्रको प्रदत्तः शुभम् भवतु"
"बाबू पूर्ण० सं० जैन लेख सं० प्रथम खण्ड शि० ले० नं०८७०” । ___इस लेख से पाया जाता है कि वि० सं० १२२१ के पहिले इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इस प्रकार इस जाति के महानुभावों ने जैन संसार में बहुत ही ऐतिहासिक कार्य किये जिनका वर्णन उपलब्ध है। ____ पारस श्रेष्टि ने पूज्याचार्य देव से साग्रह प्रार्थना की भगवान् आप कृपा करके यह चातुर्मास हमारे यहाँ करावे हमारी भावना और भी कुछ लाभ लेने की है ? सूरिजी ने कहा-पारस ! मेरे चतुर्मास के लिये तो क्षेत्र स्पर्शना होगा वही बनेगा पर तेरे जो कुछ भी लाभ लेने का विचार हो उसमें विलम्ब मत करना कारण अच्छे कार्यों में अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं दूसरा मनुष्यों को प्रायुष्य का भी विश्वास नहीं है इत्यादि । इस पर पारस ने कहा पूज्य गुरु महाराज आप फरमाते हो कि कारण से ही कार्य होता है । अतः
आपका कारण से ही मेर) कार्य सफल होने का है। सूरिजी ने कहा ठीक कहता है। एक समय फलवृद्धि संघ एकत्र हो बहुत आग्रह से सूरिजी से पुनः चातुर्मास की विनंती की और लाभालाभ का कारण जान कर सूरिजी ने संघ की प्रार्थना को स्वीकार करली बस ! फिर तो था ही क्या पारस को बड़ा ही हर्ष हुआ एक ओर तो पारस के धर्म की ओर भाव बढ़ने लगा दूपरी ओर व्यापारादि कार्य में द्रव्य भी बढ़ता गया अतः एक दिन सूरिजी से पारस ने अर्ज की प्रभो ! मेरा विचार श्रीशत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालने का है सूरिजी ने कहा 'जहाँ सुखम्' ठीक पारस ने श्रीसंघ से श्रादेश लेकर संघ के लिये सब सामग्री जमा करना प्रारंभ कर दिया था और चातुर्मास के बाद मार्गशीर्ष शुक्ला १३ को सूरिजी की नायकता एवं पारस के संघपतित्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। इस कार्य में पारस ने खुले दिल से पुष्कल द्रव्य व्यय किया। यात्रा से आकर साधर्मी भाइयों को वस्त्र, लड्डू में एक-एक सुवर्ण मुद्रा गुप्त डालकर पहरावणी में दी इत्यादि पारस वास्तव में पारस ही था आपकी सन्तान परम्परा ने भी जैनधर्म की अच्छी से अच्छी सेवा की थी। वंशावलियों में बहुत विस्तार से उल्लेख मिलता है। मेरे पास जो 'गरुड़' जाति की वंशावलियां हैं जिसमेंइस गरुड़ जाति के उदार वीरों ने शासन-सम्बन्धी इस प्रकार के कार्य किये।
६२ जैन मन्दिर, धर्मशालाएं व जीर्णोद्धार करवाये । २६ बार तीर्थों की यात्रार्थ विराट संघ निकाला। ३८ बार संघ को अपने घर पर बुलवा कर प्रभावना दी। ३ आचार्यों के पद महोत्सव किये । ४ बार आगम लिखवा कर भण्डारों में स्थापित करवाये। ६ कूदे बनवाये १ बावड़ी बन्धवाई । १४ वीर पुरुष संग्राम में वीर गति को प्राप्त हुए। ४ वीराङ्गनाएं अपने मृत पति के साथ सती हुई।
इस प्रकार अनेक कार्यों का उल्लेख वंशावलियों को पढ़ने से जाना जा सकता है। आज इस जाति के नाम के कोई भी घर दृष्टिगोचर नहीं होते पर वंशावलियों के आधार पर यह निश्चयरूपेण अनुमान लगाया जा सकता है कि एक समय इस जाति की संख्या पर्याप्त परिमाण में थी। इस गरुड जाति के अनेक महा
फलोदी मन्दिर की प्रतिष्ठा और शिला लेख Jain Education International
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