Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४३३-१४७४
इस प्रकार बहुत ही विस्तार पूर्वक वंशावलियां मिलती हैं। वि० सं० १९०३ के फाल्गुन शुक्ला २ तक के नाम वंशावलियों में लिखे मिलते हैं। इस जाति के उदार नर पुङ्गवों ने शासनोत्कर्ष एवं पुण्य सम्पादन करने के लिये इस प्रकार के सुकृत कार्य किये हैं-अर्थात
७-जैन मन्दिर एवं धर्मशालाएं बन बाई । २६-बार तीर्थ यात्रार्थ विराट संघ निकाले । ३१-बार संघ को घर बुलवाकर पहिरावणी दी। ५-बार आचार्य पद के महोत्सव किये। ६-बार जैनागमों को लिखवाकर भण्डारों में स्थापित करवाये १५-वीर पुरुष युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए। ११-वीराङ्गनाएं अपने मृत पति के साथ सती हुई।
इत्यादि कई ऐसे कार्य किये जिसका वंशावली आदि ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि उन सब कार्यों को पृथक् २ विशद रूप में वर्णन किया जाय तो एक २ जाति के लिये एक २ ग्रन्थ बन जाय ।
_आचार्यश्री सिद्ध सूरिजी महाराज महान् प्रभावक पुरुष हुए | आपने अपने पूर्वजों की भांति अनेक प्रान्तों में परिभ्रगन कर जैनधर्म की पर्याप्त प्रभावना की । कई वैरागी भावुकों को भगवती दीक्षा देकर जैन श्रमण समुदाय में वृद्धि की। कई जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैन इतिहास की नींव को दृढ़ की। कई वार तीर्थ यात्रार्थ संघ निकलवा कर तीर्थ यात्रा की। इस प्रकार आपने शब्दतोऽगम्य जैनशासन की सेवा की जिसको एक क्षण भर भी नहीं भूला जा सकता है।
___ अन्त में आपश्री ने चित्रकोट नगर में श्रेष्टि गौत्रीय शा० मांडा के महामहोत्सव पूर्वक उपाध्यायश्री भुवन कलश को सूरि पद से विभूषित कर वि० सं० १०७४ वैशाख शुक्ला १३ के दिन सौलह दिनों के अनशन पूर्वक समाधि के साथ स्वगे पधार गये।
आचार्यश्री शिष्य के जम्बुनाग का जीवन वृत्त-आचार्यश्री सिद्धसूरि के शासन में जम्बुनाग नाम के एक मुनि जो अनेक चमत्कार पूर्ण विद्याओं में पारङ्गत एवं ज्योतिष विद्या विशारद थे-महा प्रभावक हुए। आपने अपनी आत्म-सत्ता के बल पर या चमत्कार पूर्ण अलौकिक शक्तियों के आधार पर कई जैनेतरों को जैनधर्म में प्रति-बोधित किया। एक समय जम्बुनाग मुनि यथाक्रम पृथ्वी पर विहार करते हुए मरुधर प्रान्तीय लुद्रुया (लोद्रवा ) नामके शहर में पधारे । वह भीम सदृश महा-पराक्रमी तणु भाटी नाम का राजा राज्य करता था।
लोद्रव संध ने जा-युनाग मुनि से विज्ञप्ति की-प्रभो! हम लोगों का विचार यहां पर जिन मन्दिर बनवाने का है पर यहां के ब्राह्मण लोग हमें वैसा करने नहीं देते हैं। इस समय आप जैसे विद्यावली, चमत्कारी पूज्य पुरुषों के चरण कमल यहां होगये हैं फिर भी हमारे मन के मनोरथ सफल न हों तो फिर कभी होने के ही नहीं हैं। श्रीसंघ की विनम्र पूर्ण प्रार्थना को श्रवण कर जम्बुनाग मुनि ने कहा-आप लोग सर्व प्रथम राजा के पास जाकर मन्दिर निर्माणार्थ भूमि मांगो । श्रीसंव ने भी मुनिश्री के वचनामृतानुसार राजा के पास जाना निश्चय किया। क्रमशः राजा के पास उपहार ( ननराना ) भेंट करते हुए जिन मन्दिर बनाने के लिये योग्य भूमि की याचना की। राजा ने भी उपकेशवंशियों की इस उचित प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर भूमि प्रदान करदी । राजा की उदारता से बिना कष्ट भूमि के प्राप्त होजाने पर उन लोगों ने जिन मन्दिर का काम प्रारम्भ किया तो ब्राह्मणों ने अपनी सत्ता के घमण्ड में आकर मन्दिर का काम रोक दिया।
जम्बुनाग को इस बात की खबर लगते ही वे ब्राह्मणों के पास जाकर कहने लगे-त्रिजगजनपूजनीय, मुनि जम्बुनाग का लद्रवा में पदार्पण
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