Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन 7
[ोसवाल सं० १३५२-१४११
क्रमशः विहार करते हुए और धर्मोपदेश देते हुए आपश्री अजयगढ़ पधारे । वहां से आपने मरुभूमि की ओर पदार्पण किया । आचार्यश्री के पदार्पण के शुभ समाचारों से मरुधरवासियों के मारे खुशी के हर्ष का पार नहीं रहा। आपश्री के पूर्वजों से ही यह प्रवृत्ति चली आई थी कि जब आचार्यश्री विशाल शिष्य समुदाय के साथ किसी बड़े नगर से विहार करते तब मार्ग जन्य कठिनाइयों एवं असुविधाओं के कारण अपने योग्य मुनियों के साथ थोड़े २ साधुओं को देकर आसपास के छोटे बड़े ग्रामों की ओर विहार करवा देते और किसी बड़े शहर में या योग्य क्षेत्र में पुनः सव सम्मिलित हो जाते । तदनुसार आचार्य देवगुप्तसूरि ने अजयगढ़ से विहार किया तो थोड़े २ साधुओं को योग्य मुनियों के साथ समीपस्थ प्रत्येक ग्रामों की ओर विहार करवाया जिसमें उपाध्याय विनयरुचि को शाकम्भरी नगरी की ओर विहार करने की आज्ञा प्रदान की। मुनि विनयरुची ने भी गुरुदेव की आज्ञा को विनय के साथ शिरोधार्य कर शाकम्भरी की ओर पदापण कर दिया। शाकम्भरी निवासियों को उपाध्याय श्रीविनयरुचिजी के पधारने के समाचार प्राप्त हए तब उन लोगों को बहुत ही प्रसन्नता हुई । क्रमशः मुनिश्री के शाकम्भरी पधारने पर शाकम्भरी निवासियों ने आपश्री का अत्यन्त समारोह पूर्वक स्वागत किया। मुनि श्रीविनयरुचिजी थे देवी सरस्वती के परमोपासक अतः आपका व्याख्यान भी अत्यन्त मधुर, रोचक एवं चित्ताकर्षक था । व्याख्यान को श्रवण करने वाला जन समाज व्याख्यान श्रवण मात्र से मन्त्रमुग्ध हो जाता। जैनधर्मानुयायी आपके व्याख्यान का लाभ उठावे इसमें तो आश्चर्य ही क्या ? पर अजैन राजा प्रजा भी आपके व्याख्यान का लाभ अत्यन्त रुचि के साथ लेने लगे। कहा है जहाँ सहस्र सज्जन होते हैं वहां एक दो दुर्जन तो मिल ही जाते हैं, तदनुसार तत्रस्थ वाममार्गियों ने सुनिश्री के विरुद्ध एक बबण्डर उठाया । वे लोग स्थान २ पर जन समाज को भ्रम में डालने लगे कि जैन नास्तिक हैं, सत्यधर्म का विध्वंस करने वाले हैं पर इसमें वे ज्यादा सफलता नहीं प्राप्त कर सके । जैन लोगों का मुनिश्री पर पूर्ण विश्वास था अतः उन्होंने राज सभा में शास्त्रार्थ करवाकर वाममार्गियों को सर्वदा के लिये लज्जित करने का निश्चय कर लिया । निर्दिष्ट निश्चयानुसार ठीक समय में सभा एवं शास्त्रार्थ हुआ पर सरस्वती प्रदत्त वरदान धारक उपाध्याय विनयरुचिजी की विचक्षण प्रज्ञा के सामने वे पांच मकार से मोक्ष मानने वाले बेचारे वाममार्गी कहां तक ठहर सकते थे ? आखिर वे पराजित हो अपना मुंह नीचे कर चले गये । इस शास्त्रार्थ की अपूर्व विजय से वहां के राजा प्रजा पर उपा० श्री के पाण्डित्य का गजब का प्रभाव पड़ा। वे लोग उपा० विनयरुचिजी म० की एवं जैन धर्म की भूरि २ प्रशंसा करने लगे। इस तरह उपा० श्री ने कई स्थानों पर जैन धर्म की प्रभावना की।
पूज्याचार्यश्री के शासन में और भी कई प्रभाविक मुनि हुए जिसमें एक सोमसुन्दर मुनि का समुन्नत उदाहरण पाठकों के सामने रख देना ठीक समझता हूँ कि एक समय प्राचार्यश्री अपने शिष्यों को आगमों की वांचना दे रहे थे उसमें अष्टमा नंदीश्वर द्वीप का वर्णन आया, जिममें ५२ जिनालयों का वर्णन सूरीश्वरजी ने बड़े ही विस्तार से किया, इस पर सूरिजी के एक शिष्य जिसका नाम सोमसुन्दर था उसने सविनय सूरिजी से प्रार्थना की कि भगवन् ! मेरी उत्कृउ भावना है कि मैं इन शाश्वाते जिनालयों की यात्रा कर अपने जीवन को सफल बनाऊं ? सूरिजी ने कहा वत्स ! नन्दीश्वर द्वीप नज़दीक नहीं है कि भूचर-मनुष्य पैरों से चलकर यात्रा कर सके । उस तीर्थ की यात्रा तो देवता ही कर सकते हैं या जंघाचारण, विद्याचारण मुनि तथा आकाशगामिनी विद्या जानने वाला ही कर सकता है । इस पर शिष्य ने कहा प्रभो ! कुछ भी हो मुझे नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा अवश्य करनी है। सूरिजी ने कहा मुने ! इसके लिये दो ही रास्ते हैं या तो तपश्चर्या द्वारा आकाशगामिनी विद्या हांसिल करो या किसी सम्यग्दृष्टि देवता की आराधना करो कि तुम्हारे मनोरथ सिद्ध हो सकें। ठीक उसी दिन से मुनि सोमसुंदर ने तपश्चर्या करना प्रारम्भ कर दिया । कहा है कि सच्चे दिल की भावना होती है वह येनकेन प्रकारेण सफल हो ही जाती है। मुनिजी ने छः मास तक निरन्तर अष्टम-अष्टम तप के
मुनि सोमसुन्दर की भावना
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