Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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ammarnamannaamaaya
वि० सं० १५२-१०११]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ४५-आचार्यश्री ककसरि (१०वें)
भूषार्यान्विगस्तु कक्क इति यो सूरिर्मनः सत्कृती । सम्मेते शिखरेतु कोटि गणना संख्यात्म वित्तं ददौ ॥ संघायैव च नित्यमुन्नति करो जैनस्य धर्मस्य वै ।
येनाद्यापि तदीय शक्ति ज रविर्दैदीप्यतेऽस्मनमः ।। PREVEN चार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज महान् प्रतापी, प्रखर विद्वान् कठोर तप करने वाले धर्म
आ प्रचारक एवं युग प्रवर्तक आचार्य हुए। आपश्री के जीवन का अधिकांश भाग आत्म
Feet कल्याण या जन कल्याण के काम में ही व्यतीत हुआ । सूरिजी ने विविध प्रान्तों एवं देशों में परिभ्रमण कर जैन धर्म का खूब ही उद्योत किया । पट्टावली निर्माताओं ने आपके पवित्र जीवन का बहुत ही विस्तार पूर्वक वर्णन किया है पर यहां पर मुख्य २ घटनाओं को लेकर आपके जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डाल दिया जाता है।
..पाठकवृन्द पिछले प्रकरणों में पढ़ आये हैं कि आचार्यश्री देवगुप्त सूरि के उपदेश से राव गोशल ने जैन धर्म की दीक्षा लेकर सिन्ध धरा पर एक गोसलपुर नाम का नगर बसाया था। आपके जितने उत्तराधिकारी हुए वे सब के सब जैनधर्म के प्रतिपालक एवं प्रचारक हुए। आपकी सन्तान आर्यों के नाम से मशहूर हुई थी। आर्य गौत्रीय बहुत से व्यक्ति व्यापारिक धन्धों में भी पड़ गये थे। उक्त व्यापारी आर्यों में शाह जगमल्ल नाम का एक धनी सेठ भी गोसलपुर में रहता था। आपका व्यापार क्षेत्र बहुत विशाल था। आपने न्याय नीति पूर्वक व्यापार में पुष्कल द्रव्योपार्जन किया तथा उस द्रव्य को आत्म कल्याणार्थ खूब ही खुले दिल से ( उदारवृत्ति से) शुभ कार्यों में व्यय कर अतुल पुण्य राशि को सम्पादन किया। शाह जगमल्ल ने अपने जीवन काल में तीन बार तीर्थो की यात्रार्थ संघ निकाले, कई बार स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी में स्वर्ण मुद्रिकादि पुष्कल द्रव्य दिया । दीन, अनाथों को एवं याचकों को तन, मन, धन से सहायता कर शुभ पुण्य राशि के साथ ही साथ सुयश राशि को भी एकत्रित किया । याचकों ने तो कवित्त, सवैयादि छन्दों के द्वारा आपके यशोगान को जग जाहिर कर दिया। पूर्वोपार्जित पुण्योदय की प्रबलता से शाह जगमल्ल द्रव्य में दूसरे धन वैश्रमण थे वैसे कौटम्बिक परिवार की विशालता में भी अग्रगण्य ही थे। आपकी गृहदेवी भी
आपके अनुरूप रूप गुण वाली, पातिव्रत नियमनिष्ट, धर्मप्रिय थी। श्रापकी धर्मपत्नी का नाम सोनी था। माता सोनी ने अपनी पवित्र कुक्षि से सात पुत्र व चार पुत्रियों को जन्म दे स्त्रीभव को सार्थक किया था। उक्त सातों पुत्रों में एक मोहन नाम का पुत्र अत्यन्त भाग्यशाली, तेजस्वी एवं बड़ा भारी होनहार था। ___एक बार पुण्यानुयोग से लब्धप्रतिष्ठित श्रद्धेय आचार्यश्री सिद्धसूरि जी म० का आगमन क्रमशः गोस. लपुर में हुआ। आपश्री के उपदेश से प्रभावित हो शाह जगमल्ल ने सम्मेत शिखरजी की यात्रा के लिये एक विराट् संघ निकाला । 'छ री' पाली संघ के साथ शाह जगमल्ल का श्रात्मज मोहन भी था। मोहन की बालवय से ही धर्म की ओर अभिरुचि थी। उसे धार्मिक प्रश्नोत्तरों एवं चर्चाओं में बहुत ही आनंद आता था। अतः वह आचार्यश्री के साथ पैदल ही धर्म चर्चा एवं मनोद्भव शंकाओं का समाधान करता हुआ संघ के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा के लिये चलने लगा। जब उसने पाद विहार के कष्टों का अनुभव किया तो १३७०
गोसलपुर का राव जगमक्ष
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