Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० १५२-१०११]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रावगजसी के दो रानिये थीं। एक क्षत्रिय वंश की दूसरी उपकेशवंश की।
क्षत्रिय रानी से चार पुत्र हुए-१ दुर्गा २ काल्हण ३ पातो और ४ सांगो रावगजसी का पट्टधर ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा था। एक समय दुर्गा और बाघा के परस्पर तकरार होगई। आपसी कलह में दुर्गा ने बाघा को व्यङ्ग किया-तेरे में कुछ पुरुषोचित पुरुषार्थ हो तो नवीन राज्य क्यों नहीं स्थापित कर लेता ? इस ताने के मारे अपमानित हो बाघे ने व्याघ्रश्वरी देवी के मन्दिर में जाकर तीन दिवस पर्यन्त अटल ध्यान जमाया। तीसरे दिन देवी ने प्रत्यक्ष कहा-बाधा ! राज्य तो तेरे तकदीर में नहीं लिखा है, पर मैं तुझको सोने से भरे हुए सोलह चरु बतला देती हूँ। उस धन को प्राप्त करके तो तू राजा से भी अधिक नाम कर सकेगा । बाधा ने भी देवी के कथन को सहर्षे शिरोधार्य कर लिया। देवी ने भी अपने मन्दिर के पीछे भूमिस्थित १६ चरु स्वर्ण से परिपूर्ण बतला दिये । बस फिर तो था ही क्या ? बाघा ने भी रात्रि के समय उन १६ चरुओं को लाकर अपने कब्जे में कर लिया। देवो को कम से प्राप्त द्रव्य का सदुपयोग करने के निमित्त सब से पहिले बाघा ने अपने नगर के बाहिर भगवान महावीर स्वामी का ८४ देहरियों वाला एक विशाल मन्दिर बनवाया। मन्दिर के समक्ष ही धर्म ध्यान करने के लिये दो धर्मशालाएं बनवाई। इस प्रकार वह देवी से प्राप्त द्रव्य से पुण्योपार्जन करता हुआ सुख पूर्वक विचरने लगा। उसी समय प्रकृति के भीषण प्रकोप से एक महा-जन संहारक भीषण दुष्काल पड़ा । दया से परिपूर्ण उदार हृदयी बाघा ने देश भाइयों की सेवा के निमित्त करोड़ों रुपयों का दान कर स्थान २ पर मनुष्यों एवं पशुओं के लिये अन्न एवं घास की दानशालाएं उद्घटित की। एक बड़ा तालाब खुदवा कर जल कष्ट को निवारित किया । जब पांच वर्ष के अनवरत परिश्रम के पश्चात् मन्दिर का सम्पूर्ण कार्य सानन्द सम्पन्न हो गया तब आचार्यश्री देवगुप्तसूरि को बुलवा कर अत्यन्त समारोह पूर्वक मन्दिरजी की प्रतिष्ठा करवाई। आचार्यश्री का चातुर्मास करवाकर नव लक्ष द्रव्य व्यय किया । भगवती सूत्र का महोत्सव कर ज्ञानार्चना की। चातुर्मास के बाद संघ सभा कर जिन शासन की प्रभावना की व योग्य मुनियों को योग्य पदवियों प्रदान करवाई। उसी समय पवित्र तीर्थ श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा के लिये एक विराट् संघ निकाला। संघ में सम्मिलित होने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी प्रदान करने में ही करोड़ों रुपयों का द्रव्य-व्यय किया । देवी के वरदानानुसार शा० बाघा ने केवल जैन संसार के हित के लिये ही नहीं अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये अनेक जनोपयोगी कार्य किये । अपना नाम इन शुभ कार्यों से राजाओं की अपेक्षा भी अधिक विस्तृत किया । शाह बाघा की उदारवृत्ति की धवल ज्योत्स्ना इन उस चतुर्दिक में प्रकाशित होगई । यही कारण है कि शा० बाधा की सन्तान भी भविष्य में बाधा के नाम से बाघरेचा शब्द से सम्बोधित की जाने लगी । वंशावलियों में बाघ की सन्तान परम्परा का विस्तृतोल्लेख है पर नमूने के तौर पर यहां साधार रूप में लिख दी जाती हैं तथाहि
उपकेशवंश की रानी से पांच पुत्र पैदा हुए तथाहि-(१) रावल (२) माइदास ( ३ ) हर्षण (४) नागो (५) बाघो।
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वाघरेचा जाति की उत्पति
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