Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० १५२-१०११]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
द समझ
ने अपनी उज्वल कीर्ति को सर्वत्र अमर बना दी । एक समय तो इस जाति को इतनी संख्या बढ़ गई थी कि कालान्तर में कई नामी पुरुषों के नाम से कई शाखाएं प्रतिशाखाएं चल निकली । जैसे-सोनी, संघवी, जालोरी, सोडा, आडूना, लेरियादि ये सब बाघरेचा जाति की ही शाखाएं हैं। वर्तमान में तो किन्हीं २ स्थानों पर इस जाति के घर दृष्टिगोचर होते हैं पर जिस समय जैनियों की संख्या करोड़ों की थी उस समय इस जाति की भी विस्तृत-संख्या थी। चढ़ती पड़ती का चक्र संसार में चलता ही रहता है। समय तेरी भी अजव गति है। आज तो इस जाति के सपूत अपने पूर्वजों के गौरव को भी भूल बैठे हैं वही पतन का कारण है।
__ इस प्रकार आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने अनेक क्षत्रियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर महाजन संघ की अभिवृद्धि की । उस समय के आचार्यों का-जिसमें भी उपकेश गच्छाचार्यों का तो यह मुख्य ध्येय ही था। जिन २ नवीन क्षेत्रों में पदार्पण करना उन २ क्षेत्र निवासियों को जैनत्व के संस्कार से संस्कारित कर महाजन संघ में सम्मिलित करना तो उन्होंने अपना कर्तव्य ही बना लिया था। यही कारण था कि उस समय का जैन समाज धन, जन, कुटुम्ब परिवार, संख्यादि सब में बढ़ता हुआ था।
प्राचार्यश्री ककसूरिजी म० के चमत्कार के विषय में कई उदारण मिलते हैं पर स्थानाभाव से उन सबको यहां पर स्थान नहीं दिया जा सकता है। उपरोक्त थोडे बहत उदाहरणों से ही पाठक सकेंगे कि उस समय के आचार्यों का विहार क्षेत्र बहुत विशाल था। प्राचार्य बनने के पूर्व प्राचार्य पद योग्य उन्हें कितनी योग्यताएं हासिल करनी पड़ती इसका अनुमान भी सूरीश्वरों की कार्यशैली से सहज ही लगाया जा सकता है । उनकी उपदेश शैली का जन समाज पर कितना प्रमाव पड़ता था, वे देवी देवताओं को भी कितनी निर्भीकता पूर्वक प्रतिबोध देते थे, नये जैनों को बनाकर उनके साथ किस तरह का व्यवहार रखते, सर्व साधारण जनता के लिये भी उनका हृदय कितना विशाल एवं गम्भीर था इत्यादि अनेक बातों का स्पष्टीकरण आचार्यश्री के जीवन वृत्त को पढ़ने से किया जा सकता है। उनके जीवन की मुख्य विशेषता तो यह थी कि उस समय में भी आज के समान कई गच्छ, समुदाय एवं शाखाओं के वर्तमान होने पर भी उनमें परस्पर क्लेश, कदाग्रह नहीं था। वे एक दूसरे को अपने से जघन्य सिद्ध कर जिन शासन की लघुता नहीं प्रदर्शित करते । वे तो अपने कर्तव्य-धर्म की ओर लक्ष्य कर जिन शासन की प्रभावना में ही अपने मुनित्व जीवन की सार्थकता समझते। तब ही तो वे पारस्परिक प्रेम एवं स्नेह के बल पर शासन का इतना अभ्युदय कर सके थे।
आचार्यश्री ककसूरिजी ने अपने ५६ वर्ष के शासन में दक्षिण महाराष्ट्र से पूर्व दिशा के प्रान्तों पर्यन्त विहार करके लाखों मनुष्यों को मांस मदिरा का त्याग करवाया। उन्हें जैन दीक्षा से दीक्षित कर पूर्वाचार्यों के समान उपकेश वंश की वृद्धि की । अनेक तापस, सन्यासी एवं गृहस्थों को जैन दीक्षा देकर उन्हें मोक्षमार्ग के आराधक बनाये । कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवाई। देवी देवताओं के बहाने बलि दिये जाने वाले कई मूक पशुओं को अभयदान दिया। कई योग्य मुनियों को पद प्रतिष्ठित कर विविध २ प्रान्तों में विहार करवाया।
आप स्वयं ने सब प्रान्तों में परिभ्रमन कर मुनियों के उत्साह को वृद्धि गत किया। इस प्रकार आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने जैन धर्म की अमूल्य सेवा की जिसको जैन समाज एक क्षण भर मी नहीं भूल सकता है।
अन्त में देवी सच्चायिका के परामर्शानुसार अपनी आयु अल्प जान कर आचार्यश्री ने व्याघ्रपुर के शा० बाधा के महामहोत्सव पूर्वक उपाध्याय पद्मप्रभ को सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्त सूरि रख दिया । अन्त में १४ दिन के अनशन समाधि पूर्वक आचार्यश्री कक्कसूरिजी म० स्वर्ग पधार गये ।
आपके मृत शरीर के निर्वाण महोत्सव में शा० बाघा ने नव लक्ष द्रव्य व्यय किया । केवल चन्दन के काष्ठ से ही आपका अग्नि संस्कार किया गया। आपश्री की अग्नि संसार की रक्षा पर भी लोग इस प्रकार उमड़ पड़े कि रक्षा के अलावा भूमि में खासी खड़ पड़ गई। अहा! हा !! उस समय उन चमत्कारी, उपकारी १३८४
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