Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य
ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १९७८ -१२३७
को किसी बात की जरूरत हो तो कहिये ? शाहने १२ ग्रामों में जीव नहीं मरने का फरमान मांगा बादशाह ने उसी समय हुकम निकाल दिया पश्चात सभी व्यक्ति अपने २ स्थान को गये । इस प्रकार प्राचीन वंशाववलियों आदि में कई कथाएँ लिखी मिलती हैं। इसमें सत्यता का अंश कितना है इसके लिये निश्चयात्मक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है किन्तु महाजन संघने इष्ट बलसे ऐसे २ अनेक कार्य किये हैं । अतः उपर्युक्त कथन यदि सत्य मी हो तो इसमें कोई श्राश्च 'नहीं। शाह खेमा और लूना ये दोनों ७४ ॥ | शाह में सम्मलित हैं ।
उस समय महाजनसंघ की संख्या करोड़ों की थी। जिनमें ७४ || विशेष कार्य करने वाले भाग्यशाली शाह हुए हों तो यह असंभव नहीं है। प्राचीन पट्टावलियों श्रादि जैनसाहित्य का अवलोकन करने से यह पाया जाता है कि उस समय महाजनसंघ में अनेकानेक दानवीर तथा उदार नर रत्न विद्यमान थे जिन्होंने देश, समाज एवं धर्म के कार्यों में लाखों करोड़ों तो क्या परन्तु कई अरबों द्रव्य व्यय करके यश कमाया था । एक २ ने तीर्थों की यात्रार्थ संघ निकालने में सहस्रों, लक्षों नर नारियों को सुवर्णमुद्राएं एवं स्वर्णाभूषण प्रभावना के तौर पर वितरण किये थे । एकेक ने मन्दिर बनवाने में करोड़ों रुपयों का द्रव्य बात की बात में व्यय कर दिया था तथा एक-एक व्यक्ति दुष्काल के समय में सर्वस्व अर्पण कर देते थे । इस प्रकार जनोपयोगी कार्य करने से ही महाजन मां-बाप कहलाते हैं और राजा, महाराजा, बादशाह और नागरिकों की ओर से महाजनों को जगत सेठ, नगरसेठ, टीकायत चोवटिये, पंच, बोहरा, साहुकार और शाह जैसे गौरवपूर्ण पद प्रदान किये गये थे । श्रतः इतनी बड़ी समाज में ७४ ॥ शाह विशेष जनोपयोगी कार्य करने वाले हुए हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
इस समय ७४ ॥ | शाह की पाँच प्रतियाँ मेरे पास प्रस्तुत हैं उन पाँचों प्रतियों में लिखे हुए शाह के नाम या काम कुछ शाहाओं को छोड़ के मिलते हुए नहीं हैं इससे पाया जाता है कि ७४|| शाह केवल एक प्रान्त में ही नहीं पर प्रान्त प्रान्त में भिन्न २ शाह हुए हैं। जब हम इन पाँचों प्रतियों को इतिहास की कसौटी पर कस कर देखते हैं तब स्थूल दृष्टिले तो हमारे संकीर्ण हृदय में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो जाती हैं कि एक-एक शाह ने एक-एक धर्म एवं जन कल्याणार्थ इतनी बड़ी रकम क्यों कर व्यय की होगी १ एक-एक संघ में लाखों नर नारियों को स्वर्ण मुद्राएँ एवं स्वर्णाभूषण कहाँ से दिये होंगे ? जब कि वर्तमान में पाँच, पच्चीस एवं सौ पचास रुपये मासिक नौकरी करने वाले तथा तैल, नमक, मिर्च का व्यापार करने वाले और कमीशन एवं सट्टे से आजीविका चलाने वाले कि जिन्होंने अपने जीवन में पाँच पैसा भी कदाचित धर्म के नाम पर व्यय किया हो उन लोगों को उपर्युक्त शंका होना स्वभाविक ही है इतना ही क्या पर इन बातों को कानों में सुनने जितनी भी उन लोगों में उदारता कदाचित ही हो। कारण जैसे कुत्रा का मिंडक के सामने समुद्र के विशालता की बात की जाय तो वह कब मान लेगा कि समुद्र इतना विशाल होता है चूकि उसने तो कुआ के अलावा कोई विशाल स्थान जिन्दगी भर में देखा ही नहीं । इस प्रकार दरिद्रता के साम्राज्य में जन्मे
और पेट एवं कुटुम्ब का
हुए अपनी जिन्दगी के अन्त तक वही हाल देखा है कि नौकरी के पैसे लाने निर्वाह करना उसी प्रकार ताँबे पर सोने का पानी चढ़वा कर पहनने वाले के सकती है कि प्राचीन काल में महाजनसंघ के पास इतना पर्याप्त सोना था पर बने हुए विमलशाह तथा वस्तुपाल के मंदिर तथा राणकपुर के बने हुए धना शाह के मंदिर और तारंगा शत्रुंजय के मन्दिर देखते हैं तब कुछ अंशों में उनकी शङ्का निवारण हो जाती है !
कब यह बात समझ में आ पर जब लोग अर्बुदगिरी
निर्धनता का सम्राज्य में शाह ख्यति पर श्रद्धा |
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