Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ८३७-८६२]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
म्बर सुनियों के हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । उनके उत्साह में विशेष वृद्धि करने के लिये आगत श्रमण मण्डली में से पद योग्य मुनियों को उपाध्याय, गणि, गणावच्छेदक आदि पद से विभूषित किये । पञ्चात् सूरीश्वरजी के आदेशानुसार विभिन्न २ क्षेत्रों के विभिन्न २ मुनियों ने विभिन्न २ क्षेत्रों में बिहार किया। आचार्य : श्री भी विदर्भ देश को पावन करते हुए कोकण पधार गये । क्रमशः सौपार पट्टन के सफल चातुर्मासानन्तर आपश्री ने क्रमशः सौराष्ट्रप्रान्त की ओर पदार्पण किया । सौराष्ट्रप्रान्तीय तीर्थाधिराज शत्रुज्जय गिरनार आदि पवित्र तीर्थक्षेत्रों की यात्रा कर आत्म शान्ति या अनुपम निवृत्ति आनन्दानुभव करने के लिये आपश्री ने कुछ समय पर्यन्त वहाँ पर स्थिरता की । तत्पश्चात् क्रमशः बिहार करते हुए लाट, आवन्तिका और मेदपाट प्रान्त के ग्राम नगरों में बहुत समय तक धर्म प्रचार किया । बाद में आपने मरुधर भूमि को पावन करने का निश्चय किया जब मरुधर वासियों ने आचार्य श्री के आगमन के शुभ समाचार सुने तो उनकी प्रसन्नता का पारवार नहीं रहा दिग्वजय करके आये हुए चक्रवर्ती के समान ग्राम २ एवं नगरों २ में आपका समारोह पूर्वक स्वागत होने लगा ।
आचार्यश्री ने मरुभूमि में परिभ्रमन करते हुए एक चातुर्मास डिडू नगर में दूसरा नागपुर में और तीसरा उपकेशपुर में किया । उपकेशपुरीय चातुर्मास में देवी सञ्चायिका ने आकर परोक्ष रूप में सूरीश्वरजी को एकदिन सविनय वन्दन किया। सूरीश्वरजी ने भी देवी को उच्चस्वर से धर्मलाभ दिया । तत्पश्चात् देवी ने कहा पूज्य गुरुदेव ! आपश्री ने इत उत परिभ्रमन करते हुए सारे आर्यावर्त की ही प्रदक्षिणा दे डाली । धन्य है दयानिधान ! आपकी उत्कृष्ट धर्म प्रचार को पवित्र भावनाओं को और धन्य है आपश्री के उच्चतम त्याग वैराग्य को । प्रभो ! आपका धर्म स्नेह, पुरुषार्थ, एवं पराक्रम स्तुत्य तथा आदरणीय है । इसपर सूरीश्वरजी ने कहा देवीजी ! इसमें धन्यवाद की क्या बात है ? देवीजी ! परिभ्रमन करते हुए स्वशक्त्यनुकूल जन समाज को धर्म मार्ग की ओर प्रेरित करते रहना तो हमारा परम कर्तव्य ही है । धन्यवाद तो है हमारे परमाराध्य पूज्यपाद, प्रातः स्मरणीय आचार्यश्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी प्रभृति पूर्वाचार्यों को कि जिन्होने, ताड़ना, तर्जना, मानावलिना रूप असंख्य परिषदों को सहन करके भी सर्वत्र महाजन संघ की स्थापना कर कण्टकीर्ण मार्ग
परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बना दिया है । हमारे लिये तो कोई ऐसा क्षेत्र ही अवशिष्ट नहीं रक्खा कि जहा हमें धर्म प्रचार करने में किञ्चित् भी कष्ट सहन करना पड़े। उनके मार्ग का अनुसरण करके हम सुखी अवश्य है पर कर्तव्य के सिवाय धन्यवाद योग्य और कोई किया ही नहीं है । हमारे पूर्वाचार्यों इन सब क्षेत्रों में जैन धर्म की नींव डालकर शासन की बहुत ही प्रभावना की है किन्तु हमारे से तो उनके द्वारा किये गये कार्यों का एवं शतांश होना भी अशक्य है देवी जी ! जनता हमेशा भद्रिक एवं सरल परिणामों वाली होती है । यदि उनको साधुओं के आवागमन से बराबर उपदेश मिलता रहे तो वे धर्म में स्थिर रहते हैं अन्यथा मिध्यात्व का आश्रय ले शिथिल हो किञ्चित् काल में धर्म से पराङ्मुख बन जाते है । इन्हीं सभी उच्चतम, अभीप्सित भावनाओं से प्रेरित हो हमारे पूर्वाचार्यों ने आर्यावर्तीय सकल प्रान्तों में मुनि समाज को भेज कर जैन धर्म का विस्तृत प्रचार किया व करवाया । आज जिन मधुर फलों का हम आस्वादन कर रहे हैं वह सबी पूर्वाचायों को ही कृपा दृष्टि का ही परिमाण है आज भी उन्हीं के आदर्शानुसार प्रत्येक प्रान्त में साधुओं का विहार होता रहता है अतः मेरा भी सब प्रान्तों में परिभ्रमन कर उत्साह वर्धन करते रहना एक कर्तव्य हो जाता है । इससे कई तरह के लाभ होते हैं - एक तो जन समाज को साधारण तथा उपदेश मिलते रहने से धर्म जागृति होती है दूसरा प्रान्तीय मुनियों के आचार विचार व्यवहार एवं धर्म के प्रचार का निरीक्षण हो जाता है । तीसरा - तीर्थों की यात्रा का अपूर्व लाभ प्राप्त होता है और चौथा चारित्र की निर्मलता यथावत् बनी रहती है अस्तु,
देवी - पूज्यवर ! इन सबों का विचार तो वही कर सकता है - जिसके हृदय में धर्म प्रचार की उत्कट
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सूरिजी उपकेशपुर में देवी का आगमन
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