Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ८३७-८४२]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
की मशीन खूब रफ्तर से चलाई थी नमूना के तौर देखिये । ___आचार्य श्री देवगुप्तसूरि एक समय लोद्रवा पाट्टन की ओर पधार रहे थे। मार्ग में कालेर नाम का एक ग्राम आया। ग्राम से एक कोस के फांसले पर एक देवी का मन्दिर था। मन्दिर के समीप ही एक ओर हजारों स्त्री पुरुष 'जय हो देवीजी की' बोलते हुए खड़े थे और दूसरी ओर देवी को बलि देने के लिये स्रो पुरुषों की संख्या के अनुरूप ही हजारों भैंसे व बकरे व करुणा जनक शब्दों में आतंक्रन्दन करते हुए बन्धे हुए खड़े थे । आचार्यश्री का मार्ग मन्दिर क्षेत्र से बहुत दूर था तथापि बहुत मनुष्यों के समुदाय को एकत्रित हुआ देख विशेष लाभ की आशा से या अज्ञानियों के इस बाल कौतूहल को धर्म रूप में परिणत करने की प्रबल इच्छा से आचार्यश्री ने भी उधर ही पदार्पण करना समुचित समझा । क्रमशः वहाँ पहुँचने पर पशुओं की करुणा जनक स्थिति को देखकर आचार्यश्री के दुःख का पार नहीं रहा। वे इस विभत्स करुणाजनक दृश्य को देखकर मौन न रह सके । उपस्थित जन समुदाय के मुख्य २ पुरुषों को बुलाकर आचार्यश्री समझाने लगे-महानुभाव ! आप यह क्या कर रहे हैं ? उन लोगों ने कहा-महात्माजी ! हमारे ग्राम में कई दिनों से मारि रोग प्रचलित है अतः कई जवान २ व्यक्ति भी रोग की करालता के कारण कराल काल के कवल बन चुके हैं । अब आज हम सब मिलकर देवी की पूजा करेंगे व भविष्य के लिये शान्ति की प्रार्थना करेंगे।
सूरिजी-महानुभावों ! यह आपका सोचा हुआ उपाय तो शान्ति के लिए नहीं प्रत्युत् अशान्ति का ही वधक है। आप स्वयं गम्भीरता पूर्वक विचार कीजिये कि-रुधिर से भीना हुआ कपड़ा भी कर साफ किया जा सकता है ? अरे आप लोगों के पापों की प्रबलता के कारण तो यह रोग ग्राम भर में फैला और फिर इसकी शांति के लिये धर्म नहीं किन्तु पाप का ही भयङ्कर कार्य कर शान्ति की आशा कर रहे होयह कैसे सम्भव है ? इस तरह के हिंसात्मक क्रूर कमों से शान्ति एवं आनन्द की आशा रखना दुराशा मात्र है । महानुभावों ! जैसे आपके शरीर में आत्मा है उसी तरह इन पशुओं के देह में भी हैं । जैसे आपको दुःख । प्रतिकूल है और सुख की अभिलाषा प्रिय है वैसे इन पशुओं को भी दुःख प्रतिकूल सुख की इच्छा अनुकूल है। आपने किञ्चित् जीवन के लिये इन मूक पशुओं की जान लेना कहाँ तक समीचीत है । मरते हुए ये जीव आपको किस तरह का दुराशीष देते होंगे; इसके लिये आप स्वयं ही विचार करलें ।
आचार्यश्री के उक्त गम्भीर एवं सार गर्भित शब्दों के बीच ही में समीपस्थ जटाधारी बोल उठे-श्राप लोग तो जैन नास्तिक हैं । श्राप इन विषयों के विशेष अनुभवी भी नहीं है । देवी की पूजा करने पर देवी संतुष्ट हो हमारे रोग को शीघ्र ही शान्त कर देगी। यह बलि देने का विधान तो वेद विहित एवं अनादि हैं। यह कोई आज का नया विधान नहीं है । इससे तो हमारी हर एक अभिलाषाओं की पूर्ति बहुत ही शीघ्र हो जातो है । जब २ रोगोपद्रव होता है तब २ इस प्रकार से देवी का पूजन करने पर शान्ति का साम्राज्य हो जाता है।
सूरिजी-यह तो आप लोगों का अज्ञानता परिपूर्ण भ्रम मात्र है। देवी तो जगत् के चराचर जीवों की माता है । देवी के लिये जैसे अाप पुत्र स्वरूप प्रिय हैं वैसे ये मारने के लिये बांधे हुए पशु भी हैं। क्या माता को एक पुत्र को मरवा कर दूसरे पुत्र की शान्ति देखना इष्ट है ? दूसरे इन जीवों को मारकर इनके मांस भक्षण का उपयोग भी आप लोग ही करोगे न कि देवी फिर; अपने क्षणिक स्वार्थ के लिये देवी के मिस देवी को बदनाम करना आप लोगों को शोभा नहीं देता। यदि इन जीवों को देवी के ही अपर्ण करना है तो रात्रि पर्यन्त इन सबको यहीं रहने दीजिये। देवी को इनके प्राणों की बलि लेना ही इष्ट होगा तो वह स्वयं रात्रि के समय इन पशुओं को भक्षण कर लेगी।
पास ही कालेर ग्राम के राव राखेचा' बैठे हुए थे । उनको सूरिजी का कहना बहुत ही युक्तियुक्त ज्ञात
-राव के पांच पुत्रों में राखेचा भी एक था। इसको कालेर ग्राम जागीरी में मिला था । १३४०
जंगली लोगों को सदुपदेश
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