Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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प्राचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन]
[ओसवान सं० १२३७-१२६२
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राव-राखेचा (आपने जैनधर्म का बहुत प्रचार किया )
आदू
जादू (आसल ने पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया)
मुदा
गोल्हा
जोगड़ १
(१-शत्रुजय का संघ निकाला)
भानु
राणु
नारो
. दारो
देवो अज्जो + सांगण सिंहो जालो राणक पातो
(+शत्रुजय का संघ)
इस प्रकार आपकी वंशावली बहुत ही विस्तार से लिखी है। इन्होंने अपने बाहुबल से अपने राज्य का विस्तार पुंगल पर्यंत कर दिया था। वि० सं० १०१२ में पुंगल के राखेचा भोपाल ने तीर्थ श्री शत्रुक्षय का संघ निकाला तथा दुष्काल में मनुष्यों व पशुओं को खूब ही सहायता दी इससे राखेचा भोपाल की सन्तान पुंगलिया कहलाई। इन राखेचा गौत्र की वंशावलियों में वि० सं०८७८ से वि० सं० १६८३ के नाम लिखे मिलते हैं। उक्त नामावली में १३६ मन्दिर बनवाये जाने का ४२ संघ निकालने का ७ दुष्कालों में पुंगलिया गौत्रीय महानुभावों से जन, पशु रक्षणार्थ पुष्कल द्रव्य के दान देने का, ११ कूप व तीन तालाब खुदवाने व ४१ वीरां. गनाओं का अपने पति की मृत्यु के पश्चात् उनके साथ सती होने का उल्लेख मिलता है । वंशावल्योक्त समय के पश्चात् भी वीर राखेचा एवं पुंगलियों ने स्व-पर कल्याणाथ किये हुए कार्यों की शोध खोज करने पर इसका पता सहज में ही लगाया जा सकता है । इनकी परम्पराओं के द्वारा निर्मापित मन्दिर मूर्तियों के शिलालेख भी हस्तगत हुए हैं; वे यथा स्थान दे दिये जावेंगे।
२- राठोड़ अड़कमल कितने ही सरदारों को साथ में लेकर धाड़े पाड़ रहे थे एक समय अचानक इधर से तो अड़कमल अपने साथियों के साथ जंगल में जारहे थे और उधर से भू भ्रमन करते हुए प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरि अपने शिष्य समुदाय के साथ पधार रहे थे । दोनो की परस्पर एक स्थान पर भेंट हो गई। मुनियों ( भिक्षुओं) को देख कर सवारों ने उदास एवं खिन्न चित से कहा-अरे ! आज तो भिक्षुकों के दर्शन हुए हैं । अतः शुकन ही अप शुकन है । आज धन माल की आशा रखना तो दूर है किन्तु जुधा तृप्ति के लिये भोजन मिलना भी दुष्कर है । किसी ने कहा-इनके शरीर को छेद कर थोड़ा सा खून निकाला जाय तो शुकन पाल हो सकते हैं। इत्यादि
प्राचार्यश्री ने उन सरदारों की बातें सुनी। वे विचारने लगे-यदि इनके हृदय का भ्रम नहीं मिटाया जायगा तो भविष्य में कभी अन्य जैन श्रमणों को बुरी तरह से सम्तापित करेंगे । अतः आपश्री ने निर्भीकनिःशंक चित से कहा-आप लोग क्या कह रहे हैं ? क्या आप लोग हमारे खून को चाहते हैं ? यदि हमारे
खून की ही एकमात्र आवश्यकता हो तो आप निस्संकोच खून ले सकते हो । हम सब अपना खून देने के लिए तैय्यार हैं । आपके जैसे खानदान राजपूत-सरदार हम साधुओं के ग्राहक और कब मिल सकते हैं ? राठोड़ राव अड़कमल की धाड़
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