Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १२६२-१३५२
की कठोरता से उनकी शिथिलता में आशातीत सुधार हुआ। आप कर्म सिद्धान्त के पूर्ण मर्मज्ञ थे अतः आप समझते थे कि-जिस जीव का जितना क्षयोपशम हुआ है वह जीव उतना ही निर्मल चारित्र पाल सकेगा। इस विषय में प्रोपेगण्डा कर साधु समाज में छल, कपट, मायामिथ्यात्व का बर्धन काना तो प्राप्त शिथिलता से भी अधिक घातक एवं समाजोन्नति का बाधक है। अस्तु,
जहां तक किसी व्यक्ति से शासन का अहित न होता हो वहां तक उसे सर्वथा हेय नहीं समझना चाहिये । यदि उन्हें क्रियाओं की शिथिलता के कारण समाज से पृथक् कर दिया जाय तो शासन की उन्नति के बजाय अवनति ही की विशेष सम्भावना है। समाज का एक दल उन्हें अवश्य ही मान एवं प्रतिष्ठा से सम्मानित करेगा और इस तरह हमारी अदूरदर्शिता के कारण सामज में वैमनस्य एवं कलह का भीषण ताण्डव नृत्य दृष्टिगोचर होने लगेगा । अतः शासन के एक अङ्ग को अपना कर रखना ही भविष्य के लिये हितकर है। दूसरी बात चैत्यवासियों का कई राजा महाराजायों पर प्रभाव है और जैनधर्म की उन्नति में इनका विशेष सहयोग भी है अतः इनके साथ अच्छा बर्ताव रखने से एक तो जैन संव का संगठन दृढ़मजबूत रहेगा और दूसरा राजकीय सत्ताओं के आधार पर चैत्यवासियों से जैनधर्म का प्रचार बहुत ही सुगमता पूर्वक कराया जा सकेगा। आपसी प्रेम एवं एक्यता की सुदृढ़ शक्ति के कारण वादियों का सुसंगठित आक्रमण भी हमारे शासन बल को विच्छिन्न करने में समर्थ नहीं हो सकेगा।
इस प्रकार के श्रापके निर्मल विचार शासन के हित साधन में सदा ही उपकारी सिद्ध हुए । सूरीश्वरजी म० इस प्रकार वात्सल्य भाव को अपनाये हुए भूमण्डल में इधर उधर धर्म प्रचारार्थ परिभ्रमण करने लगे।
सालचा जाति-आचार्यश्री सिद्धसूरिजी म० विहार करते हुए क्रमशः खेटकपुर नगर में पधारे । वहां पर आपश्री का व्याख्यान क्रम प्रति दिन के भांति प्रारम्भ ही था। जैन व जैनेतर समाज आचार्यश्री की
दन शैली से आकर्षित हो सदैव बिना किसी विधन के व्याख्यान श्रवणक्रम प्रारम्भ ही रखती।
चालक्य वंश का वीर सालू भी एक बड़ा ही भजनी सरदार था। वह निरन्तर भगवद् भक्ति या भजन में ही मस्त रहता । उसने भी जब श्राचार्यश्री के व्याख्यान की प्रशंसा सुनी तो भगवद्भक्ति का अनुरागी प्रेमवश श्राचार्यश्री का व्याख्यान श्रवण करने नियम पूर्वक आने जाने लगा। एक दिन प्रसङ्गतः सूरिजी के व्याख्यान में भगवद् भक्ति का प्रसङ्ग चल पड़ा । आये हुए विषय का स्पष्टीकरण करते हुए श्राचार्यश्री ने ध्येय व ध्यान का विशद विवेचन किया । विषय का विस्तार करते हुए अापने फरमाया कि-ध्यान का लक्ष्य ध्येय पर ही अवलम्बित है। कई भद्रिक महानुभाव ध्येय को और ध्यान नहीं देते हए एकमात्र भजनादि में ही संलग्न रहते हैं पर ध्येय के साङ्गोपाङ्ग स्वरूप को पहिचाने बिना वे भजन आदि धार्मिक कृत्य उस तरह की इष्ट सिद्धि को करने वाले नहीं होते जैसे कि ध्येय को पहिचान कर ध्यान करने वालों के कार्य होते हैं । अतः ध्यान अथवा भजनादि पारमार्थिक-आत्मोन्नति के कार्य ध्येय-लक्ष्य बिन्दु को स्थिर करके ही किये जाने चाहिये। उदाहरणार्थ-एक किसी व्यक्ति को सौ कोस दर नगर को जाना है। वह सौ कोस को पार करने के लिये प्रति दिन १५-२० कोस चलता है पर उसको नगर की निर्दिष्ट दिशा व स्थान का निश्चित ज्ञान नहीं होने के कारण वह अधिक चलने वाला होने पर भी इत उत मार्ग से स्खलित होने के कारण भटकता फिरेगा तब एक आदमी इसके विपरीत एक या आधा कोस ही प्रति दिन चलता है पर वह निर्दिष्ट नगर के ठीक रास्ते से प्रयाण करता है तो अवश्य ही कुछ दिनों के पश्चात् बिना किसी विन्न के वह अपने लक्ष्य बिन्दु नगर को प्राप्त कर लेगा। चलने की अपेक्षा उसका परिश्रम अत्यन्त कठोर व कई गुना ज्यादा है तब लक्ष्य बिन्दु की निश्चिन्तता के कारण अल्प परिश्रमी भी स्वइष्ट सिद्धि को प्राप्त कर सकता है । अतः मनुष्य का भी यह कर्तव्य है कि वह पहले अपने ध्येय को ( जिसका ध्यान करता है उसको) पहिचान ले इत्यादि । राव सेलु के यह बात जच गई अतः वह किसी समय आचार्यश्री के पास में आकर पूछने लगा-महात्मन् ! सालेचा जाति का उत्पत्ति
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