Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ भोसवाल सं० १२६२-१३५२
भोज्य का भोजन किया अतः वे सबके सब विष व्यापी शरीर वाले होगये । प्रातःकाल होते ही लोगों ने उन्हें अचैतन्यावस्था में देखा तो सर्वत्र हाहाकार मच गया। कोई कहने लगे-निरपराधी साधु के बाण मारने का यह कटुफल मिला है तो कोई-मन्त्र तत्र विशारद साधु समुदाय ने ही कुछ कर दिया है। कोई जैन मुनियों की करामात है। इस प्रकार जन समाज में विविध प्रकार को कल्पनाओं ने स्थान कर लिया। जब यह बात ओसवालों को ज्ञात हुई तो उन्होंने सोचा कि यह तो एक अपने ऊपर कलंक की ही बात है अतः शेष बचे हुए मांस की परीक्षा करवानी चाहिये। मांस की परीक्षा करने पर स्पष्ट ज्ञात होगया कि मांस में विषैला पदार्थ मिला हुआ है।
इतने में ही किसी ने कहा जैन महात्मा बड़े करामाती हीते हैं। उनके पास जाकर प्रार्थना करने से वे सबको निर्विष बना देवेंगे। बस, सब लोग श्राचार्यश्री के पास आकर करुणाजनक स्वर में प्रार्थना करने लगे। सूरिजी ने भी हस्तागत स्वर्णावसर का विशेषोपयोग करते हुए उन लोगों को धर्मोपदेश दिया तथा देव, गुरु, धर्म की आशातना के कटुफलों को स्पष्ट समझाया इस पर उन लोगों ने अपना २ अपराध स्वीकार करते हुए आचार्यश्री से क्षमा याचना की और कहा-महात्मन् ! यदि आप इन सबों को निर्विष कर देवेंगे तो हम सब लोग आपश्री का अत्यन्त उपकार मानेगें । जैसे महाजन लोग आपके भक्त हैं वैसे हम और हमारी सन्तान परम्परा भी आपके चरण किङ्कर होकर रहेंगे। इत्यादि ।
महाजनों ने आचार्यश्री के चरणों का प्रक्षालन कर वह जल उन विषव्यापी क्षत्रियों पर डाला। सूरीश्वरजी के पुन्य प्रताप से व देवी सच्चायिका की सहायता से वे सब क्षत्रिय सचेतन हो बैठ गये । कजल के साथ सब ही क्षत्रियों ने आचार्यश्री के चरणों में नमस्कार किया। सूरिजी ने कहा महानुभावों । भविष्य में साधु तो क्या पर किसी भी निरापराधी जीवों कों कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये आप क्षत्री है अतः स्वात्मा परात्मा की रक्षा करना चाहिये । इत्यादि तदान्तर सूरिजी ने तुलनात्मक धर्म का स्वरूप समझाया । कारण केवल चमत्कार देखकर अज्ञातपने से धर्म स्वीकार करने वालों की नींव बड़ी कमजोर होती है। अतः समयज्ञ सूरिजी ने उन लोगों को इस प्रकार समझाया कि वे स्वयं हिंसामय धर्म एवं लोभी गुरुओं से घृणित हो पवित्र अहिंसामय धर्म एवं निस्पृही त्यागी गुरु की ओर आकर्षित होकर विना विलम्ब:उन सपने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इससे जैनधर्म की अच्छी प्रभावना हुई । इतर धर्म व दर्शनों पर भी जैनियों के महात्म्य का अच्छा प्रभाव पड़ा।
इस घटना का समय पट्टावलीकारों ने वि० सं० १४२ का लिखा है। क्षत्रियों ने इस दिन की स्मृति के लिये शिवगढ़ में भगवान महावीर का मन्दिर भी बनवाया है। क्रमशः राव कज्जल का पुत्र धवल हुआ और धवल का पुत्र छाजू हुआ। छाजू बड़ा ही भाग्यशाली था। छाजू पर देवी सच्चायिका की पूर्ण कृपा थी। देवी की कृपा से इनको निधान भी मिला था। छाजू ने शिवगढ़ में भगवान् पाश्वनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया तथा शत्रुञ्जयादि तीर्थों के लिये संघ निकाल कर स्वधर्मी बन्धुओं को वस्त्र व स्वर्णमुद्रिकादि के साथ मोदक की प्रभावना एवं पहिरावणी दी । इन शुभ कार्यों में छाजू ने एक करोड़ रुपये व्यय कर अपने कल्याण के साथ अपनी धवल कीर्ति को चतुर्दिक में अमर बना दी । इस छाजू की सन्तान ही आगे छाजेड़ जाति से सम्बोधित की जाने लगी। इस जाति का क्रमशः इतना अभ्युदय हुआ कि इनको संख्या कई ग्राम नगरों में वट वृक्ष के भांति प्रसरित होगई । इनका वैवाहिक सम्बन्ध जैसे क्षत्रियों के साथ था वैसे उपकेशवंशियों से भी प्रारम्भ था । छाजेड़ जाति से-नखा, चावा, संघवी, भाखरिया, नागावत, मेहता, रुपावतादिक कई शाखाएं निकली । मेरे पास जितनी वंशावलिये हैं उनमें वर्णित इस जाति के नर पुङ्गवों के द्वारा किये गये कार्यों का टोटल लगाया तो
२५३-जैन मन्दिर, धर्मशालाएं तथा जीर्णोद्वार करवाये । सुरीधरजी का चमत्कार
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