Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३५
धरियो खास सिवास नैन खुलिया मुख वाचा । निर हिंसक निर कपट है, चलत जैन की राह ॥ रोग सोग सब दूर शब्द सतगुरु का साचा ।
पट्टावली आदि प्राचीन ग्रन्थों में ओर उपरो आलस मोड उहियों कहे निंद आइ भलो ।
कविता में क्या २ फरक है वो नीचे लिखा जाता है: किस काज मने ल्याया अठे रस कहो साची गलो।
(१) राब उत्पलदेव 4 मारवंशी नहीं पर सूर्यवंशी था खमा खमा सब कहे उठ गुरु चरणे लागा। मंगल धवल अपार बधावा भाणंदवागा ॥
(२) सूरिजी के साथ ८४ नहीं पर ५०० साधु थे तोरणछत्र निशाण कलस सौवन वधावा ।।
(३) राजा के पुत्र नहीं होना और बाद में देवी ने पुः भर मोतियन का थाल सखियन मिल मंगल गावे ॥ दिया सो बात नहीं है पर राजा के पाँच पुत्र थे। ओछांडिया महल बजार घर सनो चोक पुराविया ।
(४) मुनि भिक्षा के लिये नगर में गये थे पर शु जदी खीन खाप पग पातिया रतनप्रभ पधराविया ॥
आहार न मिलने से ज्यों के त्यों लौट आये पर ब्राह्मण के घ नृपत करे विनती जोड़ कर हाजर ठाडो ।
की भिक्षा और उसको पारठ देना तथा परठ। हुआ आहार स कृपा करो महाराज धरममें रह सु गाडो ॥
बन जाना और राज पत्र को काटना ये सब कल्पना मात्र है पटा परवाना गाम खजाना खास खुलावु ।
सांपकाटा था मंत्री के पुत्र को जो राजा के जमाई कबहु न लोपु कार हुकम श्रवण सुन पाउ ॥
(५) नूतन श्रावकों की संख्या के विषय सवका म गुरु कियो त्याग धन वैकार एक वचन मोय दीजिये ।
| एक नही है। कारण केई सवालाख १२५००० कोई ८००० मिथ्या त्याग जैनधर्म ग्रहो दान शील तप कीजिये।
| तथा केई १८४००० और केई ३८४००० भी लिखते तहत वचन उर धार नृपत श्रावक ब्रत लिया।
इसका मुख्य कारण ये है कि सबसे पहले तो १२५०० पुर दुडिं फरवाय नार नर भेला किया ।
सवालाख को ही जैन बनाये बाद सूरिजी वहाँ ठहर व भिन्न भिन्न वख्यान सुणे गुरु के वायक ।
समय समय उपदेश देते गये और जैन बनाते गये इस प्रक खट काया प्रति पाल शील संयम सुख दायक ।
संख्या बढ़ती गई आखीर की संख्या उपकेशपुर में ३८४०० कर मनसो यों सकल मिल मौड कर जोडिया।
घरों की बन गई हो तो ये 'सम्भव हो सकता है। सिद्धान्त जान जिन धर्म को शक्त पन्थ मुख मोडिया ॥ शील धर दृढ़ साच करे पौषाद पडीक्ररमा ।
ओसवाल जाति का कवित सामायिक सम भाव समझ वै दिन दिन दुणा ॥
"श्रीमान पूर्णचन्द्रजी नाहर के लिखे एवं संग्र हिंसा कहु नहीं लेस देश में आण फोराई ।
किये लेख प्रबन्धावली' नामक पुस्तक में मुद्रित हु धर्म तण फल मिष्ट सबे सांभल जो भाई ॥
है जिसके अन्दर से एक त्रुटककावतइह भांत जैन धर्म धारियो शक्त पंथ मुख मोड़के
दोहा। गुरो वचन शिरधरी नृप मान मोड़ कर जोड़के
श्री सुरसती देज्यो मुदा, भासै बहुत विशाल । इष्ट मिलियौ मन मिल गयो, मिल मिल मिल्यो मेल
नासै सब संकट परो, उत्पत्ति कहुँ उसवाल ॥१॥ फूल वास त दुध जिय, ज्यो, तिलयन मांही तेल
देश किसे किण नगर में, जात हुई छे एह'। सहस चौरासी एक लख घर गणती पुर माह
सुगुरु धरम सिखावियो, कहिस्यु अब ससनेह ॥२॥ एकण थाल अरोगिया, भिन्न भाव कुच्छ नाह
छन्द । भोटा जगदा छोढिया, गढ़ मढ़ शस्त्र सीपाह ।
पुर सुन्दर धाम वसै सकलं, किरन्यावत पावस होय भलं नोट:-इसके भागे का कवित किसी सजन के पास चऊटा चउराशि विराज खरे, पग मेलय जोर सुग्यान धरै होवे उसको प्रकाशित करवादे या मेरे पास भेज देखें कि इस भिन मालक नित राजपरं, भल भीम नरेंद उपति वरं मधुरा कवित को पुरा कर दिया जाय ।
पटराणी के दोय सुतन्न भरं, सुरसुन्दर उपल'मत्त धरं महाजन संघ के प्राचीन कवित
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