Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७)
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
एक एक नाम की जातियाँ सही । मूल गोत्र से निकली कही॥ पुत्र पिता भीड़ पास महल सहलां सुख माणे। जिणसु नाम आवे वारम्वार । शंका छोड करजो विचार ॥ तीण अवसर रिषीराज रत्नप्रभु मास म्यामणे । वंशावलियों से एक ही की। चौपाइ संघ समे धरी ॥ शिष्य चौरासी साथ व्रत संयम तप साधे ।
और जातियों कितनी रही। जिसको कैसे जावे कही। धरे ध्यान एकतार देव जिनराज आगधे । जब था समय उन्नति करी। वड जिम शाखा विस्तरी ॥ शहर में गये शिष्यवहरवा धर्म लाभ करत। फिरे ॥ पत्तन चक्र का उलटा काम । अब रह गये पुस्तक में नाम ॥ इण नगर माहि दात्ता न को वसे सुम सारा शीरे । फिर भी है गौरव की बात । अतित संभालो मुप्रभात ॥ घर घर सब फिर गये पवित्र आहार न पायो । ज्ञानसुन्दर सेवः दिल बसी। भल देख मत करजो हंसी। विप्र एक तीणवार वचन ऐसो बतलायो । दो हजार भाद्रपदमास । कृष्ण एकादसी पुरी पास। हम गृह पावन करो धन धनभाग हमारी । गुरुवार भलोसुखवास । अजयगढ़ में रहे चौमास ॥१॥ आज हुओ आवणो मुनि यह देश तुमारो ॥
पूज्य मुनिराजश्री दर्शन विजयजी महाराज को नारायण | सुझतो आहार दोषण बिनो खीर खांड बहेवियां । गढ़ के गुरांसाहब गणपतरायजी से प्राप्त हुये कुछ त्रुटक पन्ने | उजले चित दोऊ जण ते गुरू के पाप्त आविया ॥ मिले जिसको आपश्री ने ताः २६ जौलाई १९४१ के ओस- देख गुरू गोचरी ध्यान धर ने आरोहण किया। घाल अखबार में मुद्रित करवाया था यद्यपि इन कवितो में | सबद तणो पाषण तोय ब्राह्मण घर लिया ॥ वे ही भाटों की बहिया के अनुसार कुछ कुछ गड़बड़ अवश्य नगर मही ना लाख बसे घर एक सरीखा । हुई है फिर भी ये बात निश्चित है कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी शक्त पन्थ मत्त बाद शीस संदूरी टीका ॥ महाराज ने उपकेशपुर नगर के राव उत्पलदेवजी आदि पाखों समझ हुमा थिर मन ध्यान अन्तर सू खोले । वीर क्षत्रियों नागरिक लोगों को मांस मदिरा आदि दुर्व्यसन शिष्य प्रति महाराज मुसक पुख वायक बोले ॥ छुड़ाकर जैन बनाये इसी बात को लक्ष में रखकर वे कवित गरू कहे वार लागी गणीत कहो शिष्य कीण कारणे । ज्यों के त्यों यहाँ पर दर्ज कर दिया जाता है ।
शिष्य कहे माहार मिल्यो नहीं मैं फिरीयो घर२ बारणे । राजा उपलदेव पंवार नगर ओसियो नरेश्वर । शिष्य मुख से सुन वैण आहार परथवी परठायो । राज रीत भोगवे सक्ता (देवी) सचिया दीनहुवर ॥ पीवण सर्प हुअ गयो महल नृप सुत के आयो । नव सौ चरू निधान दिया सोनइया दंवी । पीवण सांप पी गयो कंवर ने चैन न ताई । इंला उपरी अंगज किया सुपा नामा केवी ॥
नहीं आशा विश्वास सोग हगयो सताई ॥ इमकरी राज भोगवे अदल बहत खलक वदीत होय। हाहाकार हुओ शहर में दाग देणे चली दुनि । नहीं राजपूत चिंतानिपट सगत प्रगट कही कथा सोय॥ रतनप्रभ सांबल रुदन दया देख बोले मुनि ॥ हे राज ! किण काज करो चिंता मन माहीं । मुनि वायक सुणी वैन भ्रम राजन टांगों। सुत न उदरत य लिख्यो देउ किम अंक बनाई ॥ कौन नाम गुरू कहे सांच देखावे ठीकाणो ॥ नृपत होय दलगीर दीन वायक इम मुख भाखे । नृपत वचन जो सुन कहे मुनि उत्तर इस धारो । पुत्र विना सुर राय राज मारो कुण राखें । उस खेजड़े प्रस्थान कंवर ने लेइ पधारो ॥ देवी दया विचार वचन दिनो निरदोशी । साधो सरणे आय नृपत विनती करावे । रहो रहो रायनिक पुत्र निश्चय एक होसी ॥ निश्चय हे त्रास हरो मुकट ऋषि चरण धारावे ॥ जुग जाहिर जल पुर सुख घणा मरोपण हलटसी। माफ करो तकसीर अब आप चूक बक्साई । उदुवाणा आणा फिरसी अहे पवारा गढ़ पलटसी॥ ये मौ बृद्ध काल की लाज है गुरु कुंवरजीवाइये ॥ देवी के वरदान पुन्य राजा फल पायो । करूणासिन्धु दयाल नृपत कुँ हसी वर दियो । नाम दियो जयचन्द वरस पनरो परणायो ॥ गयो रोस तत्काल मृतक सुत ततखीण जियो ॥
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महाजन संघ की प्राचीन कवि
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