Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देव गुप्तसूरि का जीवन ]
[ श्रोसवाल सं० १२३७-१२१२
उक्त बारह उपकरण तथा मात्रक ( घड़ा या तृपणी विशेष ) और चोलपट्टा ये चौदह उपकरण स्थविर कल्पी साधु रख सकते हैं । साध्वी इनकी अपेक्षा कुछ अधिक उपकरण रख सकती है। कारण स्त्रीपर्याय होने से उन्हें ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये अधिक भण्डोपकरण रखना अनिवार्य हो जाता है । उक्त १४ स्थविर कल्पियों के उपकरणों के सिवाय साध्वी ११ उपकरण और रख सकती है तथाहि
उग्गहत १५ पट्टो १६ उडढो रु १७ चलखिया १८ य बोद्धग्बा । आभिंतर १६ बाहरि२० नियंत्रणीय २१ तह कंचुएचेव २२ ॥ उगच्छ्रिय२३ वेगच्छिय२४ संघाडी २५ चेव खंधकरणीय । श्रोहिम एए श्राणं पनवीसं तुं ॥
ऊपर बतलाये हुए उपकरणों का परिमाण एवं प्रयोजन निम्न प्रकारेण हैं
( १ ) पात्र - भिक्षा ग्रहण करने के लिये - इसका परिमाण
"तिनी विद्दत्थी चउरंगुल च भाणस्स मज्झिमप्पमाणं । इत्तो हीरा जहन्नं श्रइरेगयरं तु उक्कोसं ॥ अर्थात् - चालीस अंगुल प्रमाण परधीवाला पात्र मध्यम श्रेणी का गिना जाता है। इससे कम जघन्य और अधिक उत्कृष्ट पात्र समझा जाता है । पात्र रखने का प्रयोजन
छकाय रक्खणडा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं । ने य गुणा संभोए हवंति ते पायग्गहणे ॥ अतरंत बालबुड्ढासेहाएसा गुरु असहुवग्गे । साहारणुग्गहा लद्धिकारणा पायगहणं तु ॥
अर्थात्[-छकाय जीवों की रक्षा के लिये और बालवृद्ध ग्लानि की वैयावश्च के लिये जिनेश्वरों ने पात्र प्रण एवं धारण करना फरमाया है ।
(२) पात्रबंधन ( झोली ) - जिसके अन्दर पात्र रख कर के भिक्षा लाई जाय । इसका परिमाण - पयाबन्धप्पमाणं भाणष्पमाणेण होइ नायव्वं । जहगंठिभि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥
अर्थात् - पात्रों को बांध देने के पश्चात् किनारा चार अंगुल रह सके उतने प्रमाण की झोली होनी
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चाहिये ।
पत्तद्ववणं तद् गुच्छश्रो य पाय पडिलेहणीया य । तिपि य प्यमाणं विहत्थि चउरंगुलंचेव । जेहिं सविया नदीसइ अंतरि तारिसा भवे पडला । तिन्निव पंच व सत्त व कदलीगन्भोषमा भणिसा ।।
(३) पात्र स्थापन - प्रत्येक पात्र के नीचे ऊन का खण्ड रखा जाता है ।
( ४ ) पात्र केसरिका - छोटी चरवाली जो पात्र प्रमार्जन के काम में श्राती है।
( ५ ) पडिला - गौचरी जाते समय झोली पर डाले जाने वाला वस्त्र विशेष । इसकी संख्या - शीतकाल
५ उष्णकाल में ३ और वर्षाकाल में ७ रहती है। मुख्य हेतु जीवों की रक्षा का व पात्र आहार गुप्त रहे । (६) रजखाण - प्रत्येक पात्र के बीच में रखने के वस्त्र विशेष । पात्र और जीवों की रक्षार्थ । (७) गोच्छक - पात्रों को झोली में बांधने के पश्चात् उस पर ऊन के दो खण्ड ऊपर नीचे गुच्छे की आकृति से बांधे जाते हैं उसे गोच्छक कहते हैं ।
इन पडिला एवं रजताण का परिमाण निम्न है
अड्ढाइजा हत्था दीहा छत्तीस अंगुले रुंदा, बीयं पडिग्गह। ओ ससरीराओ य निष्पन्नं ॥ मातु रत्ताणे भाण प्रमाणेण होइ निष्पन्नं, पायहिणं करतं मज्झे चउरंगलं कमइ ॥
जैन श्रमणों के धर्मोपकरण
Jain Education Inational १६७
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