Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ८३७-८९२
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
दोनों की प्रबलता को निर्बल बना दिया था तथापि इनका समूल नाश नहीं हुआ था। जैसे ग्यारहवें गुण स्थान में मोह उपशान्त हो जाता है पर उसकी सत्ता नष्ट न होने से नीचे गिरने पर वह पुनः बलवान बन जाता है यही हाल हमारे सूरिजी के सामने पूर्वोक्त दोनों प्रश्नों का था। यद्यपि वादियों की शक्ति नष्ट हो चुकी थी अतः उनका सामना करना साधारण बात थी किन्तु घर की बिगड़ी हुई हालत को सुधारना टेड़ी खीर थी। श्राचार्यश्री के सहवास से देवगुप्तसूरिजी ने यह अनुभव कर लिया था कि-दूषित पक्ष की निंदा करना, उनको हलका बताना या अपने आप उनसे पृथक होकर अपनी उच्चता की डींग हांकना-समाज में सुधार करने की अपेक्षा बिगाड़ ही करता है। अपने से विलग हुए भाइयों को शान्ति, प्रेम और एकता से अपनी ओर जितना प्रभावित कर सकते हैं उतना उनको ठुकरा करके या अवहेलना करने से नहीं । प्रेम पूर्वक उपालम्भ देकर उनमें आई हुई शिथिलता को दूर करने से उन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है । शर्म व संकोचवश वे अपने दूषणों को त्यागने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इसके विपरीत जब दूषित पक्ष की निःशंकतया निन्दा की जाती है तब सम्मुख पक्षीय व्यक्ति भी बेधड़क निर्भय हो जाता है। फिर क्रमशः कुछ मनुष्य उनको भी सहायता देने वाले मिल जाते हैं और इस तरह दो पार्टियां हो समाज की केन्द्रित-संगठित शक्ति नष्ट हो जाती है। परिणाम स्वरूप उन्नति कोसों दूर भाग जाती है और अवनति का भीषण ताण्डव नृत्य नयनों के समक्ष प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होने लगता है। कालान्तर में उन्नति का, उत्कृष्ट प्राचार का दम भरने वाली श्रमण मण्डली भी शिथिल हो पूर्व दूषित पक्ष से भी जघन्य श्रेणी की हो जाती है और इस तरह क्रियोद्धारकों के रूप में नवीनर शाखा प्रशाखाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है। क्रमशः संघ में कलह, फूट, ईया द्वेष का ही नवीन रूप देखने को मिलता है; प्रेम और सद् भावना तो डरके मारे भग ही जाती है। सूरिजी इस बात के पक्के अनुभवी थे अतः आपने भी आचार्य श्री कक्कसूरिजी म. के मार्ग का अनुकरण करना ही शिथिलाचार निवारण के लिये श्रेयस्कर समझा । शान्ति एवं प्रेम को अपनाकर पूर्वाचार्यों के आदश-प्रादर्श का अनुसरण करने से शिथिलाचारियों के बजाय सुविहितों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई । . एक समय आचार्यश्री अपनी शिष्य मण्डली के साथ सिन्ध धरा में परिभ्रमण कर रहे थे। आप श्री के बिहार की यह पद्धति थी कि मार्ग के छोटे २ ग्रामों में सर्व साधुओं का यथोचित निर्वाह न होने के कारण थोड़े २ मुनियों को इधर उधर आस पास के क्षेत्रों में प्रचारार्थ भेज देते और बड़े शहर में पुनः सकल शिष्य समुदाय के साथ एकत्रित हो जाते । उक्त पद्धत्यनुसार एक समय ऐसा मौका आया कि आप सौ साधुओं के साथ बिहार कर रहे थे ओर शेष साधुओं को आपने ग्राम की लघुता के कारण इतर क्षेत्र में भेज दिये थे। मार्ग में सूर्यास्त हो जाने के कारण आचार्यश्री अवशिष्ट शिष्य वर्ग के साथ एक दीर्घकाय वटवृक्ष के नीचे शास्त्रीय नियमानुसार ठहर गये। मार्ग जन्य श्रम से श्रमित मुनि समुदाय संथारा पौरसी कर सोगये। कुछ ही क्षणों के पश्चात् थकावट की अधिकता के कारण उन्हें निद्रा आ गई पर आचार्यश्री तो अभी तक भी बैठे ही थे। बड़ों पर गच्छ मुनि वर्ग का सकल उत्तरदायित्व रहता है अतः आचार्यश्री भी अपने कर्तव्यानुसार बैठे २ संग्रहणी शास्त्र का स्वाध्याय करने लगे। थोड़े ही समय के पश्चात् वट वृक्षाधिष्ठायक देवता वहाँ आया तो वृक्ष के पृष्ठ भाग पर मुनि समुदाय को निंद्रित अवस्था में सोता हुआ देखकर क्रोध से लाल पीला हो गया। क्रोध के कर आवेश में अपने कर्तव्याकर्तव्य का भान भूल कर सोये हुए साधुओं को दण्ड देने के लिए उद्यत हा वह नीचे की ओर आया और तत्काल उसके कानों में सरिजी की स्वाध्याय के कर्णप्रिय शब्द पडे। ये शब्द यक्ष को इतने रूचिकर प्रतीत हुए कि वह अपने क्रोध को भूलकर उन्हीं शब्दों को सुनने में तन्मय हो गया । क्रमशः एकाग्रचित्त से जब सुना तब तो यक्ष के आश्चर्य का पार नहीं रहा। वह सोचने लगा कियह सब तो हमारे देव भवन की ही संख्या, लम्बाई, चौड़ाई, हमारे सामायिक देवों की परिषदा का वर्णन देवियों की गिनती है। क्या ये मुनि हमारे देव भवन को देख के आये हैं ? यदि ऐसा न हो तो इनको ठीक २
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