Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १२३७-१२२२ ४३-आचार्य देवगुप्तसूरि (९वाँ)
आचार्यस्तु स देवगुप्त इतियो गोत्रे सुचिन्त्यात्म के, विद्यारत्न नयादि भूषित तया राज्ञां समूहेर्नुतः । गच्छानामपि सूरिश्गमद्यस्थ समीपे स्वयं,
गूढज्ञान विचार भव्यसरणौ रन्तु मनाः श्रद्धया । Sars ज्यपाद, प्रातः स्मरणीय, सुरासुरेन्द्रमानवेन्द्रार्चितचरणारविन्द. श्रीमद्देवगुप्रसूरि, प्रखर
प्रतिभासम्पन्न अनन्य विद्वान, प्रचण्ड तेजस्वी, वादीगजकेशरी महाशासन प्रभावक सुविSAME हित शिरोमणि, उपबिहारी युग प्रवर्तक श्राचार्य हुए। आपश्री का जीवन अनेक चमत्कारों से परिपर्ण. जनकल्याण की पवित्र भावनाओं से ओतमोल, वाचक वृन्द को चार पथ का पथिक है। पट्टावली निर्माताओं ने आपश्री के जीवन चरित्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म दिग्दर्शन कराते हुए विशद रूप में लिखा है। हम ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से उतना विस्तृत तो नहीं पर पाठकों के आत्मकल्याण की इच्छा से संक्षिप्त रूप में लिख देते हैं।
मरुधर के वक्षस्थल पर अलंकार रूप पालिका (पाली ) नाम की जनमनमोहक नगरी थी। भारत के व्यापारिक क्षेत्रों में इस नगरी ने भी पर्याय नाम कमाया था। इस नगरी की थावादी एवं शोभा के विषय में किसी कवि ने इसका साक्षात्कार
"वापी वा विहार वर्ण वनिता वाग्मी वन वाटिका । वैद्यो ब्राह्मण वादी वैस्म विबुधा वैश्या वाणिग्वाहिना ।। विद्या वीर विवेक वित्त विनय वाचंयमा वल्लकी ।
वस्त्रं पारण वाजि वैशर वरं चै ति पुरं शोभते" ॥१॥ अर्थात्-वापी (वावड़िया) परकोट, मन्दिर, चारवर्ण के लोग, सुन्दर, मधुर भाषी देवाङ्गना जैसी स्त्रियां, सभाशृंगार पण्डित, उद्यान, वाटिकाएं श्रायुर्वेद विशारद वैद्य, वेदपाठी ब्राह्मण, तर्क वादी कोविद, उच्च २ अट्टालियों वाले मकान, देवस्थान, वैश्याएं, व्यापारी, चतुरङ्गिणीसेनाएं, विद्याकलाकुशल परम दक्ष वीर सुभट, विवेको लोग, धन-लक्ष्मी, स्वाभाविक विनयगुणसम्पन्न व्यक्ति, त्यागी, महात्मा, सन्यासी, बढ़िया वस्त्र, मदझरते मदोन्मत्त मत्तंगज, पवनवेगगामी अश्वराशि, स्त्रियों के नाक के भूपण इत्यादि अट्ठावीस प्रकार व० कार से यह नगरी शोभायमान थी।
इसी पाल्दिका नगरी में उपकेश वंशीय सुचंति गोत्रीय, शाह राणा नामक एक प्रसिद्ध व्यागरी निवास करते थे। आपकी ग्रहदेवी का माम भरी था। प्रार पूर्वजन्मोपार्जित सुक्रतपुञ्जोदय से अपार सम्पत्ति एवं विशाल कुटुम्ब के स्वामीचेचारका व्यापार आस्त के सिवाय विदेशों चीन, जापान, मिश्र, जावा, बलोचिस्तान वगैरह कई स्थानों में आपकी पेढ़ियाँ स्थापित थीं। जल और स्थल दोनों मार्गों से माल का आना, जाना, लाना, लेजाना प्रारम्भ था । सारांश यह कि आपका व्यापार बड़ा ही जोरों से चलता था । विविध प्रकार के रेशम, हीरा, माणक, पन्ना, पोखराज, मोती, झीनेकपड़े, कटलरी, बख्तर, गुंथणाकाम, भरतकाम, अत्तर, तेल, दशा, तेजाना, हाथीदांत, जवाहिरात, सोना और क्वचित
पाल्ली नगर का वर्णन Jain Education International
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