Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आप इतिहास के कुछ पृष्ठों को खोल कर देखिये कि अत्याचारी व विदेशियों ने भारत के जवाहिरात और स्वर्ण आदि द्रव्य को किस निर्दयता से लूटा है वह भी एक दो दिन या एक दो वर्ष ही नहीं प्रत्युत सात सौ श्रासौ वर्षों तक लूटते ही रहे जो जवाहिरात एवं स्वर्ण से उँट ही नहीं पर ऊँटों की कतारे भर-भर कर ले गये थे । एक नादिरशाह बादशाह चन्द घंटों में देहली के जौहरी बाजार से जवाहिरात के ऊँट के उँट भरवा कर ले गया था तब सात सौ आठसौ वर्षों का तो हिसाब ही क्या ? अस्तु
जब अंग्रेजों का नम्बर आता है तो अंग्रेज भी भारत से कम जवाहिरात तथा कम स्वर्ण नहीं लेगये हैं। भारत में अंग्रेजों के आने के पूर्व उनका इतिहास देखने से पता चल जायगा कि युरोप में उस समय कितना सोना था और आज कितना है । वह द्रव्य कहाँ से आया जो आज पाश्चात्य लोग करोड़ों पौण्ड विद्या प्रचार में तथा नये-नये आविष्कारों में व्यय कर रहे हैं इत्यादि । विचार करने पर यही कहा जा सकता है कि भारतवर्ष धन की खान है और वह द्रव्य विशेष कर महाजनों के ही पास था । अनुमानतः एकसौ वर्ष पूर्व टॉड साहब ने भारत का भ्रमण करने पर लिखा था कि भारत का आधा द्रव्य जैनियों के पास है ।
चीन काल की यह बात है तब प्राचीन काल की सत्यता में क्या शंका की जा सकती है ।
महाजन लोगों को अपने देव गुरु धर्म पर पूर्ण इष्ट था कि इष्ट के बल से वे मनुष्यों से तो क्या पर देवताओं से भी काम निकलवा लेते थे और ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते हैं ।
"जैसे कइयों को पारस मिला, कइयों को सुवर्णसिद्धि रसायण, कइयों को तेजमतुरी मिली, कइयों को चित्रावल्ली, तब कइयों को स्वर्णमय पुरुष मिला, एक को जड़ी बूटी मिली जिससे स्वर्ण बनवा लिया, एक को देवीने अक्षय थैली दी तो कइयों को अक्षय निधान बतला दिया । इनके अलावा बहुत से लोग विदेशों
व्यापार कर समुद्रोंसे प्राप्त हुई बहुत से जवाहिरात भी ले आये थे । अतः उन महाजनों के घरके द्रव्य का कौन पता लगा सकता था । दूसरा उस जमाने के महाजनों की यह एक बड़ी भारी विशेषता थी कि वे प्राप्त लक्ष्मी को संचय नहीं कर धर्म कार्य एवं जनोपयोगी कार्यों में लगा देने में अपना कल्याण एवं लक्ष्मी का सदुपयोग समझते थे और ज्यों-ज्यों वे लक्ष्मी सद्कार्यों में व्यय करते थे त्यों त्यों लक्ष्मी उनके वहाँ विना बुलाये ही श्राकर स्थिरवास कर दिया करती थी । श्रतः उन शाहात्रों के किये हुए कार्यों में समझदारों को शंका करने की जरूरत नहीं है ।
अस्तु, उन शादाओं का समय तो बहुत प्राचीन काल से प्रारम्भ होता है और उस समय की अपेक्षा से श्राज बीसवीं शताब्दी सब तरह से गई गुजरी है धन में और संख्या में इसका पतन अपनी सीमा तक पहुँच गया है । तथापि महाजन संघ एकेक धर्म कार्य में दश दश, बीस-बीस लक्ष रुपये खर्च कर देना तो एक बाँया हाथ का खेल ही समझते हैं। जिसके लिये कदम्बगिरी के मन्दिर तथा पालीतांणे का आगम मन्दिर प्रत्यक्ष उदाहरणरूप हैं तथा मुट्ठी भर मूर्तिपूजक समाज के केवल मन्दिरों का खर्चा प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का हो रहा है । तब श्राज से १४००-१५०० वर्ष पूर्व का महाजनसंघ जो उन्नति के ऊँचे शिखर पर था उस समय में पूर्वोक्त कार्य किया हो तो इसमें शंका करने जैसा कोई भी कारण नहीं हो सकता है । कदाचित पच्चीस, पचास एवं सौ रुपये मासिक नौकरी करने वालों की समझ में एकदम यह बात नहीं आवे तो बालों पर सुगंधी तेल लगाकर किसी सौरभयुक्त बाटिका में बैठकर शान्त चित से विचार करें कि इस बीसवीं शताब्दी के पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी महाजनों के लिये कैसी थी और उन्नीसवीं के पूर्व
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देव गुरु धर्म पर श्रद्धा का ही फल है
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