Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
१७६- आपके पास सेजमतुरी थी जिससे सुवर्ण की सुपारियां बना कर सघ को पहरामणी दी। १७७-आपके पास चित्रावली थी जिससे स्वर्ण के नारियल बनाकर संघपूजा में दिये । १७८-सम्मेतशिखर की यात्रार्थ संघ निकाल समुद्र तक पहरामणी दी। १७९-दुर्भिक्ष में पुष्कल द्रव्य व्यय कर देशवासी भाइयों के पशुओं के प्राण बचाये। १८०-श्री शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाल यात्रा की जाते आते सर्वत्र लहण दी स्वामिवात्सल्य कर ___ संघ को पहरामणी में बहुत द्रव्य व्यय किया । १८१-दुकाल में मनुष्यों को अन्न पशुओं को घास के लिये देश २ स्थान स्थान पर शत्रु कार खोल दिया
बिना भेद भाव के खुले दिल दान किया चार मंदिर चार तालाब बनाये व संघपूजा पहरामणी दी। १८२-गरीब निराधारों को गुप्तसहायता दी तीर्थों की यात्रा की घर पर आने वाले साधर्मी भाइयों का
सम्मान कर निराधार को द्रव्य दिया करते आपने अपनी उदारता से राजा महाराजा और बादशाहों के सहकार से जैनधर्म एवं श्रोसवाल जाति का सुयश बढ़ाया ।
जैन संघ ने केवल अपने धर्म के लिये ही नहीं पर जन साधारण के लिये भी कैपी कैसी सेवाए की जिसके लिये कई प्राचीन कवित कविताए मिलती है जिसको भी यहाँ दर्ज करदी जाती है।
॥ बंदिवान छोड़नेवाला भेरुशाह लोडाका छंद ॥ | पीडिजे लोक प्रभोमि लीजे, डराये दहु दिसि डरै ॥ असुर सेन दल संभरि भाइ, पंधवि मुगलां बंदि चलाइ । मेलीया ते ओसवाल उदिवंत, सोन क्रिपणां लाइयं । पहुसम परज कर पुकार कीधा चरित किसौ करतारं ॥ पुनिवंत सारं पछे भेरू बहुत बंदि छु इयं ॥ जगड भीम जगसी नहीं, सारंग सहजा तंन;
कविता. वाहर चढि हा तणां, महि भैरू महिवन
छुडाइ सब बंदि, अवनि अखीयात उबारो। मृगनैणी मंनि औदकै, परवति *'पालो' जाई । अलवरि गढि उब , सिपति सहु करे तुहारी ॥ कैलोढा' तुमथी उबरै, के खुरसाण विकाइ
सो परिभू भैसाहि, तिपुर सोनया समप्या। छंद.
जीवदया जिनधर्म, दांन छह दरसणि प्या ॥ खुरसाण काबिल दिसह खंचहि एक रूसन बरसये। डाहाज साह अंगो भमी, भणति भांण जगि जस घणो। असवरै यो मुलितान लीजै, करब चेडी दखये ॥ बंदी छोड बिरद भेरू सदा दिन दिन दोलति दस गुणो ॥ खटहडै कोट दुरंग पाडी, धरा असपति धावये । जुगति जोग रप्त भोग, अचल आसण मेवातह । पुनिवंत सारंग पछे भैरू, बहुत बंदि छुडावये ॥ डेड खग खिति मझि बथ मेखलि निगातह ॥ भड सुइड ते मैं भंति भगो, को न वाहर आवये । तनु बभुति धन रिधि, बचन बोलीये सुछ जहि । फिरि राज कवरी वाट हालै, अम्हे कोण छुडावये ॥ श्रवन न द सोवनं सबद सीरी सीगी बजै ॥ अहिवात अविचल दिये 'लोढौ,' सीख संचिगां लाइयं । । आदेस खान सुरताण नै, भगि सीह सि रवि तवै। पुनिवंत सारंग पछे भैरू, बहुत बंदि छुडाइयं ॥ भैरवां ग्यान गोरख तु, चहु दिसि चेला चक्रवै ॥ बामणी विणाणी पवणी सारी, दे असोहा अति घणी। हाटि बसै मेवात भो नवनिधि किराणे । लख बरस 'लोढा' प.घ कायम, किति चहु खंडी तुम तणी। बिणज करे जस काजि, बेसि अलवर गढ थाणे ॥ सांचोया सुक्रत निवाण निश्चल, भांग सुजस सुणाइयं ॥ डांडिय दुरिजन राइ, पाई पलडा लहतरी । पुनिवंत सारंग पछे भेरू, बहुत बंदि छुटाइयं ॥३॥ बाद न को उघटै खान सोदागर सतरि ॥ बिलबिलै बालक माय पाखै, एक रणमै रडवडै । भणि सीह डाहासा तन भेरू करी कंचन श्रवे ।
१३०४ Jain Education International
७४॥ शाहों की ख्याति
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