Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८ से ८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
की। सूराचार्य ने भी तत्काल एक सुन्दर गाथा बना कर राजा को देदी । अंधय सुयाणकालो भीमो पुहवीइनिम्मिओ विहिणा। जेण सयं पि न गणियं का गणाणा तुज्स इक्कस्स ॥
इससे राजा भीम बहुत ही सन्तुष्ट होकर कहने लगा--मेरे राज्य में ऐसे २ विद्वान् कवि विद्यमान हैं तो मेरा कौन पराभव कर सकता है ? बस, राजा ने गाथा को एक लिफाफे में बन्द कर राजा भोज के मन्त्री को दे दी और उसे यथोचित सन्मान पूर्वक विदा किया। - गुरु महाराज ने शिष्यों को पढ़ाने के लिये सूराचार्य को नियुक्त किया पर सूराचार्य की प्रकृति बहुत ही तेज थी। वे अध्ययन, अध्यापन के समय ताड़ना तर्जना करने में रजोहरण की एक दण्डी हमेशा तोड़ देते थे। इससे शिष्यों का अभ्यास तो खूब जोरों से चलता था पर मार से वेचारे सप घबरा जाते थे। एक दिन सूरा. चार्य ने आदेश दिया कि मेरे रजोहरण में लोहे की दंडी बना कर डालो, इससे तो शिष्य-समुदाय और भी अधिक घबरा गया। किसी ने आकर गुरुमहाराज से इस विषय में निवेदन किया तो गुरु ने सूराचार्य को उपालम्भ दिया । सूराचार्य ने कहा-मेरी नियत शिष्यों का अहित करने की नहीं पर शीघ्र ज्ञान बढ़ाने की है मेरे पढ़ाये हुए शिष्य षट् दर्शन के बाद में विजयी होंगे। गुरुदेव ने कहा तुमको वाद का गर्व है तो राजा भोज की सभा में विजय प्राप्त कर फिर शिष्यों को शिक्षा देना । गुरुदेव के व्यङ्ग पूर्ण बचनों को सुनकर सूराचार्य ने प्रतिज्ञा करली कि जबतक मैं धारानगरी जाकर भोज की सभामें विजय प्राप्त न करलूं तब तक छ ही विगयका त्याग रक्खूगा । दूसरे दिन शिष्यों की वाचना के लिये अनध्याय (छुट्टी करदी इससे शिष्य समुदाय में महोत्सव जैसा हर्ष मनाया गया। गौचरी के समय विगय आई पर सूगचार्य ने स्पर्श तक भी नहीं किया इस पर गुरु महाराज ने कहा-मैं तुमकों मालवे जाने की अाज्ञा न दूगा पर सूगचार्य ने अपना अाग्रह नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं सूराचार्य ने तो यहां तक कह दिया कि यदि आप मुझे ज्यादा विवश करेंगे तो मैं मेरी प्रतिज्ञा को छोडूगा नहीं पर अनशन ही स्वीकार कर लूगा । इस पर प्राचार्यश्री ने कहा वत्स! तेरी युवावस्था है अतः अपने भ्रमण निर्वाहक यमनियम ब्रह्मचर्य की यथावत् रक्षा करते हुए अपनी अभीष्ट सिद्ध हस्तगत करना । सूराचार्य ने गुरुवचन को तथास्तु कह कर राजा भीम के पास गमन किया और उनसे धारानगरी जाने की अनुमति मांगी इस पर राजा ने कहा-पूज्यवर ! एक तो आप हमारे धर्माचार्य हैं और दूसरे सांसारिक सम्बन्ध से सम्बन्धी भी हैं अतः मैं विदेश जाने कि आज्ञा कैसे दे सकता हूँ ? इधर तो पाटण में इस प्रकार सूरिजी एवं राजा के परस्पर बातें हो रही थी कि उधर धारानगरी से राजा के प्रधान पुरुष आगये। उन्होंने राजा भीम से प्रार्थना की-हे नरेन्द्र ! हमारे गजा की गाथा के उत्तर में आपके पंडितों की ओर से जो गाथा भेजी गई थी, उसको पढ़ राजा भोज बहुत ही सन्तुष्ट हुए । राजा भोज उस गाथा रचयिता पण्डितजी के दर्शन करना चाहते हैं अतः कृपा कर पंडितजी को हमारे साथ भेज देवें। राजा भीम ने कहा-ऐसे सुयोग्य विद्वान को विदेश में कैसे भेजा जा सकता है ? आप ही स्वयं विचार कीजिये । राजा के निषेधक वचनों को सुनकर के भी धारा के प्रधान पुरुषों ने बहुत ही आग्रह किया तब राजा भीम ने कहा-यदि आप पण्डितजी को ले जाना ही चाहते हैं वो मैं केवल एक शर्त पर भेज सकता हूँ और वह भी यह कि राजा भोज स्वयं हमारे पण्डितजी के सन्मुख पाकर स्वागत करे । प्रधानों ने इसबात को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इधर पास में बैठे हुए सूराचार्य सोचने लगे कि यह तो बड़ा पुण्योदय है । कारण, मैं स्वयं धारानगरी जाना चाहता था पर राजा भोज के प्रधान पुरुष स्वयं आमन्त्रण करने को आगये। यह तो प्रारम्भ में ही शुभ संकेत रूप मङ्गलाचरण हुआ ।
सूराचार्य नेशिष्यों को शिक्षा
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