Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१२३७
बाद में बिहार करते हुए वे आप थरापद्रनगर में पाये और वहां पर वर्धमानसूरि का अनशन एवं समाधिपूर्वक स्वर्गबास होगया।
एक समय ऐसा दुष्काल पड़ा कि जिससे ज्ञान ध्यान में स्खलना होने लगी। जैनागमों तथा उसपर की गई वृत्तियों का भी उच्छेद हो गया । इसको देख शासन देवीने रात्री के समय अभयदेवसूरि को कहा कि दुर्भिक्ष के कारण श्रीशीलाझाचार्य रचित टीकाओं में केवल दो अंग की टीका ही अवशिष्ट रह गई हैं और बाकी सव विच्छेद हो गयी हैं अतः श्राप अवशिष्ट नव अङ्गों को टोका बनाकर साधु समाज पर उपकार और शासन की अमूल्य सेवा करें । इस पर सूरिजी ने नौ अंगों पर टीका रचकर विद्वान् आचार्यों से उनका संशोधन करवाया श्रीभगवतीजीसूत्र की टोकामें स्वयं आचार्यश्री लिखते हैं कि टीकाओं का संशोधन मैंने द्रोणाचार्य से करवाया जो चैत्यवासियों के अग्रगण्य नेता थे । इनके अलावा सूरिजीने अपनी टीका में यह भी सूचित किया है कि पूर्वाचार्य रचित टीका चूर्णियों के आधार से मैंने टीका की रचना की है । देवी के कहने से प्रथम प्रति देवी के भूषण से लिखवाई और बादमें कई भावुक श्रावकों ने अपने द्रव्य से आगम लिखवा कर आचार्यश्री को अर्पण किये तथा भण्डारों में स्थापित किये ।
एक समय अभयदेवसूरि विहार करके धोलका नगर में पधारे । वहां अशुभकर्मोदय से आपके शरीर में कुष्टरोगोत्पन्न हो गया। इससे कई इर्ष्यालु लोग कहने लगे कि टीका बनाने में उत्सूत्र भाषण एवं लेखन से ही अभयदेवसूरि के शरीर में रोग हुआ है । लोगों के मुख से उक्त अपवाद को सुनकर आचार्य अभयदेव सूरि को बड़ी चिन्ता होने लगी। पुण्योदय से एक दिन की रात्री में धरणेन्द्र ने आकर सूरीश्वरजी के शरीर का अपनी जिभ्या से स्पर्श किया इसपर अज्ञात सूरिजी ने सोचाकि मेरा आयुष्य नजदीक आगया है पर दूसरे ही दिन धरणेन्द्र ने प्रगट हो कर कहा कि आपके शरीर का स्पर्श करने वाला मैं हूँ। रोगापहरण के लिए ही मैंने ऐसा किया था अतः एतद्विषयक किञ्चित् भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये सूरिजीने कहा-धरणेन्द्र ! रोग
और मरण का तो मुझे तनिक भी भय नहीं है पर इसके लिये इर्ष्यालु लोग शासन की हीलना करें यह जरा विचारणीय या भयोत्पादक है । धरणेन्द्र ने कहा-इस बात कां आप तनिक भी खेद न करें। जिन बिम्बके प्रभाव से आपके शरीर का यह रोग निश्चय ही चला जायगा। अब एतदर्थ मेरी बात जरा ध्यान पूर्वक सुनिये । श्रीकान्त नगरी का निवासी धनेश नामका एक धनाढ्य श्रावक जहाजों में माल भर कर समुद्र मार्गसे जारहा था । मार्ग में बाणव्यन्तर देवता ने किसी कारण वश उन जहाजों को स्तम्भित कर दिया और उपदेश दिया। इससे धनेश श्रावकने भूमिसे तीन प्रतिमाएं निकाली एवं घरपर ले आया उक्त तीनों प्रतिमाओं में एक की स्थापना चारूप नगरमें की जिससे वह चारूप तीर्थ कहलाया और दूसरी की स्थापना अण डिल्ल पाटणमें की। बची हुई तीसरी प्रतिमा को स्तम्भन प्राम की सेडिका नदी के तट स्थित भूगर्भ में स्थापन की है जिसको
आपश्री जाकरके प्रगट करें। पूर्व नागार्जुन ने भी वहां रस सिद्धि प्राप्त कर स्तम्भनपुर नाम का प्राम आवाद किया । जिन विम्ब के प्रगट होने से आपके कुष्ट रोग का क्षय होगा और आपकी कीर्ति भी बहुत प्रसरित होगी।
इतना कह कर धरणेन्द्र देव तो अदृश्य हो गया। प्रातःकाल होते ही सूरिजी ने सब हाल धोलका नगर-निवासी श्रीसंघ को कहा | धरणेन्द्र देवागमन और रोगापहरण का सफल उपाय सुनकर श्रीसंघ के हर्ष का पारावार नहीं रहा । बस, ९०० गाडों के साथ श्रीसंघ व सूरिजी चलकर सेटी नदी के किनारे पर आये। गोपाल को पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहां गाय का दूध स्वयं सवित होता है । अप्रगण्य लोगों ने उक्त भूमि को
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