Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सिंहोबली हरिणशूकरमांस भोजी , संवत्सरेण रतिमेतिकिलैकवारम् ।
पारापतः खर शिलाकण भोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः॥
अर्थात् बलिष्ठ सिंह हरिण और शूकर के मांस को खाता हुआ भी वर्ष में एक बार रति सुख को भोगता है और कबूतर शुष्क धान्य खाने वाला होने पर भी प्रतिदिन कामी होता है; इसमें क्या कारण है ?
इस उत्तर का राजा व राजसभा के पण्डितों पर बहुत ही प्रभाव पड़ा । “आचार्य हेमचन्द्रसूरि और पाटण का राजा सिद्धराज जयसिंह का चरित्र बड़ा ही चमत्कारी है साथ में एक देवबोध भागवताचार्य का विस्तार से वर्णन किया है पर हमारा संक्षिप्त उद्देश्य के अनुसार हमने यहाँ साररूप ही लिखा है चाहे जैन धर्म के कितने ही द्वेषी क्यों न हो पर उनके मुह से भी साहस निकल ही जाता है जैसे कि पातु वो हेमगोपालः कंबलं दंडमुद्वहन । पट्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे ॥ ९० ॥
राजा सिद्धराज के सन्तान नहीं थी अतः वह उदासीनता धारण का प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के साथ तीर्थ यात्रार्थ निकल गया पर राजा पैदल चलता था एक समय राजा ने सूरिजी से प्रार्थना की कि श्राप बाहन पर सवारी करावे ? सूरिजी ने इस बात को स्वीकार नहीं करके अपना साधु धर्म का परिचय करवाया इस पर राजा ने भक्ति के वस होकर कहा कि आप जड़ हो सूरिजी ने कहा हम निजड़ हैं । इस पर राजा को बड़ा ही आश्चर्य हुआ । पर उस दिन से सूरिजी का और राजा का ३ दिन तक मिलाप नहीं हुआ तब राजा ने सोचा कि सूरिजी गुस्से हो गये होंगे राजा चल कर सूरिजी के तंबु में आये वहां सूरिजी श्रांविल कर रहे थे जो पानी में लुखी रोटी डालकर खा रहे थे जिसको राजा ने देखा तो उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा राजा ने सूरिजी से प्रार्थना की भगवान् मेरे अपराध की क्षमा बक्सीस करो इस पर सूरिजी ने कहा कि ।
'भुंजी महीवय भैक्ष्य जीर्ण वासो वसी महि शयी महि पृष्ठे कुर्वी महि किमीश्वरैः।।
हम भिक्षालाकर भोजन करते हैं जीर्ण वस्त्र पहनते हैं और भूमि पर शयन करते हैं फिर हमें रांक और राजा से क्या प्रयोजन है । सूरिजी की निस्पृहता देख राजा को बड़ी श्रद्धा हो गई । राजा ने सूरिजी का बड़ा भारी सत्कार किया बाद राजा सूरिजीके साथ शत्रुजय पर चढ़े और राजाने भाव सहित युगादीश्वर की पूजा कर बारह प्राम भेंट (अर्पण) किये और अपने जन्म को कृतार्थ माना । बाद गिरनारतीर्थ जाकर भगवान् नेमिनाथ के चरण युगल की पूजा की राजाने नेमिनाथ का प्रसाद देखकर खुशी मनाइ इसपर सजन मंत्री ने कहा नरेश ! इसका पुन्य आपने ही उपार्जन किया है कारण नौ वर्ष पूर्व में यहां का सूबा था और राज्य की आमन्द से सतावीस लक्ष द्रव्य लगा कर तीर्थ का उद्धार करवाया था आपकी स्मृति में न हो तो मेरे से अभी द्रव्य ले लिरावे ? राजा ने उसका बड़ा भारी अनुमोदन किया और रत्न सुवर्ण पुष्पादि से पूजा कर कई मर्यादाएं स्वयं राजा ने बांधी वह अभी तक चलती हैं बाद सूरिजी के साथ राजा प्रभासपहन शिव दर्शनार्थ गये और सूरिजी भी साथ में थे सूरिजी ने शिवजी की स्तुति की।
यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्य भिद्याय यया तया।
वीत दोष कुलुषः स चेद् भवानेक एव भगवान्नमोस्तु ते ॥ १॥ किसी भी समय किसी भी तरह किसी भी नाम से क्यों न हो पर जो आप दोष कलुष से रहित हो तो हे भगवान् ! श्राप और जिन एक ही हो आपको मेरा नमस्कार हो। वहां से व्याकुल चित एवं संतान १२६४
राजाने शजय को बारह ग्राम भेट
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