Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८ से ८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
तथाऽस्तु कहकर कुमारपाल नगर में गया । श्रीमान् संबसे मिला और हेमाचार्य के उपाश्रय गया कुमारपाल गुरु को नमस्कार कर उनके आसन पर बैठ गया इससे पुनः गुरु ने कहा इस निमित्त से तुम निश्चय ही राजा होगे कुमारपाल ने सूरिजी का उपकार मानता हुआ वहाँ से उठकर नगर में जा रहा था । कि दशहजार अश्व का मालिक कृष्णदेव जो आपका बेनोइ लगता था रात्रि में मिला।
इधर पाटण के राजधूरा चलाने वालों की सिद्धराज के शिव मन्दिर में सभा हो रही थी कि पाटण का राजा किसको बनाया जाय इस विषय का विचार करते थे वहां पर दो राजपुत्र आये वे ठीक स्थान पर बैठ गये । इतने में कृष्णदेव कुमारपाल को भी सभा में लाये वे अपने वस्त्र को संकलित कर योग्यासन पर बैठ गये इस पर गज शुभचिंतकों ने भविष्य का विचार कर सबकी सम्मति से पाटण के राज सिंहा. सन पर कुमारपाल का राज्याभिषेक करबाया तत्पश्चात् कुमारपाल के दुःखमय भ्रमन के समय जितने लोगों ने सहायता दी थी उन सबकों बुलवा कर सबका यथाशक्ति सम्मान किया भोपालदेवी को पट्टराणी पद दिया और भी यथासंभव मंत्री महामंत्री वगैरह पद पर नियुक्त किये । गुरु हेमचन्द्रसूरि के लिये तो कहना ही क्या था जो आगे लिखा जायगा।
राजा कुमारपाल के राजसिंहासन पर बैठते ही सपादलक्ष के चौहान राजा अर्णोराज के साथ विग्रह हुआ जिससे सैना लेकर चढ़ाई की पर सफलता नहीं मिली अतः लौटकर वापिस आया इस प्रकार कई वक्त सैना लेकर गया इसमें कई ११ वर्ण खत्म हो गया पर अर्णोराज को पराजय नहीं कर सका तब कुमारपाल ने अपने मंत्री वाग्भट्ट से जो मंत्री उदायण का पुत्र था उपाय पूछा उसने उत्तर दिया कि हे नरेश ! जबकि आपकी प्राज्ञा से आपके भाई कीर्तिपाल ने सोराष्ट्र के राव नोधण पर चढ़ाई की उसमें मेरा पिता उदायण भी था उसने नाते समय शत्रुजय युगादिनाथ का दर्शन पूजन किया और युद्ध विजय के लिये भी प्रार्थना की बाद वहाँ का जीर्ण मन्दिर देख उद्धार करवाने की प्रतिज्ञा की बाद नोंषण से युद्ध किया। जिसमें कीर्तिपाल के पास में रह कर मंत्री उदायण वीरता से युद्ध करता था और विजय भी मिली पर उदायण के चोट न लगने पर भी वह भूमि पर गिर पड़ा कीर्तिपाल ने उदायण के पास जाकर अन्तिम वात करी उदायण ने कहा कि मेरी अन्तिमावस्था है पर आप मेरे पुत्र वाग्भट्ट को कहना कि मेरी प्रतिज्ञा (तीर्थोद्वार) को वह पूर्ण करे इत्यादि हे राजन! यदि भाप भी विजय की इच्छा रखो तो अजितनाथ का इष्ट एवं मान्यता रखो इत्यादि । राजा ने कहा ठीक है वाग्भट्ट अब मुझे याद आ गया है कि मैं मेरी मुसाफरी में भ्रमन करता खम्मात गया था बोसिरि द्वारा मैं उदयन से कुच्छ याचना की पर वह नितिज्ञ एवं राजभक्त उस समय वे मेरी कुच्छ भी सहायता नहीं कर सके पर मैंने उस पर गुस्सा न कर उसकी राजभक्ति की सराहना की बाद हेमाचार्य के पास गया उसने मेरी सहायता कर राज मिलने का विश्वास दिलाया इत्यादि राजा ने मंत्री की प्रशंसा की बाद में राजा ने वाग्भट्ट को कहा कि राज खजाना से धन लेकर पहले शत्रुजय का उद्धार करवा कर मंत्री की प्रतिज्ञा को सफल करो। बाद मंत्री वाग्भट्ट के साथ राजा कुमारपाल पार्श्वनाथ के मन्दिर में जाकर के दर्शन पूजन वगैरह भति कर युद्ध विजय की बोलवां की जिसमें मंत्री वाग्भट्ट को साक्षि रूप में रखा। बाद प्रमु को नमस्कार करके अजित मन्दिर हो कर अपने स्थान आये और शीघ्र ही सेना को सजधज कर विजय की आकांक्षा करते हुये पाटण से प्रस्थान कर दिया और क्रमश: चंद्रावती के पास आकर डेरा डाल दिया वहां के सामंत राजा ने भी अच्छा स्वागत किया।
Amann
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कुमारपाल को पाटण का राज
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