Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
सूरिजीने भरोंच निवासियों को इशारा किया जिससे सकल श्रीसंघने मिल कर वीरनाग का पर्याप्त सम्मान किया एवं उन्हें सर्व प्रकार सहायता पहुँचाकर स्वधर्मी वत्सलता का परिचय दिया। एक समय पूर्णचन्द्र कुछ नमक श्रादि पदार्थ लेकर नगर में बेचने को गया। मार्ग में उसे एक ऐसे श्रेष्टिवर्य का घर मिला जिसके वहां पूर्वजों द्वारा सम्चित सोनैया कोलसे के रूप में बन गया था। उस श्रेष्टि ने उक्त द्रव्य को कोयला समम कर बाहर डालना प्रारम्भ किया इतने ही में बालक पूर्णचन्द्र भाग्यवशात् वहां पहुंच गया । यद्यपि वह सौनया श्रेष्टि को कोयले के रूप में दीखता था पर पूर्णचन्द्र को वह स्वर्ण रूप ज्ञात होने लगा। वह तत्काल बोल उठा - श्रेष्टिवर्य ! श्राप सौनयाँ को बाहिर क्यों कर फेंक रहे हैं। सेठ समझ गया कि निश्चित् ही यह कोई भाग्यशाली पुरुष है । कारण, मेरे भाग्य में न होने के कारण मुझे यह कोलसों के रूप में मालूम होता है पर वास्तव में यह है सौनया ही । अतः स्वर्णावसर का सदुपयोग कर सेठ ने कहा-वत्स ! इस पात्र में डालकर यह सब मेरे घर में रख दो । पूर्णचन्द्र ने भी उनको एक पात्र में इकट्ठा कर निर्दिष्ट स्थान पर रखदिया जिसके उपलक्ष में सेठने बच्चे को सौ सौनया दिया ।
पूर्णचन्द्र सहर्ष अपने घर पर आया और अपने पिताश्री को सब हाल कह सुनाया। वीरनाग ने भी दूसरे दिन प्रसन्न चित्त होकर आचार्य चन्द्रसूरि को पुत्र कथित सब वृत्तान्त कहा, इस पर सूरिजीने कहावीरनाग ! तुम्हारा पुत्र वड़ा ही भाग्यशाली है । यदि यह दीक्षा ले तो अपनी आत्मा के साथ ही जगत के जीवों का उद्धार कर सकेगा।
वीरनाग ने कहा-पूज्यवर ! यह मेरे एक ही पुत्र है पर आपश्री के आदेश की उपेक्षा भी नहीं कर सकता हूँ। आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।
इसपर आचार्य चन्द्रसूरि ने भरोंच के श्रावकों को सूचित कर दिया जिससे उन्होंने वीरनाग को ताजीवन के लिये आवश्यकता से अधिक पर्याप्त सहायता पहुँचादी। उधर शुभमुहूर्त में बालक पूर्णचन्द्र को शिक्षा दीक्षा देकर उसका नाम मुनि रामचन्द्र रख दिया। मुनि रामचन्द्र पुण्यशाली एवं कुशाग्र मतिवन्त थे अतः थोड़े ही समय में उन्होंने स्वपर मत के शास्त्रों का गम्भीर मनन पूर्वक अध्ययन कर लिया। इतना ही क्यों पर मुनि रामचन्द्र पर सरस्वती देवी की भी पूर्ण कृपा थी एवं उसने मुनि रामचन्द्र को वरदान भी दिया था यही कारण है कि आप सर्वत्र विजय पताका फहरा रहे थे। क्रमशः वे इतने प्रवीण हो गये कि--
१-धोलका में अद्वैतवादी ब्राह्मणों को परास्त किया। २-काश्मीर के वादी सागर को पराजित किया। ३-सत्यपुर के वादियों से विजय प्राप्त की। ४-नागपुर के गुणचन्द्र दिगम्बर को शास्त्रार्थ में हराया। ५-चित्रकूट में भगवत शिवभूति को , , ६-गोपगिरि में गङ्गधर वादी को परास्त किया। ७-धारा में धरणीधर वादी को , , ८-पुष्करणी में वादी प्रभाकर ब्राह्मण का पराजथ किया । ९-भृगुक्षेत्र में कृष्ण नामके ब्राह्मण को हराया।
इस प्रकार मुनि रामचन्द्र ने वाद विजय में बड़ी ही प्रख्याती प्राप्त करली । अब तो श्रापके अनुपम आचार्य वादिदेवसरि का बाद विजय
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