Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
चारण के आडम्बर पूर्ण मिथ्याप्रलाप सूचक शब्दों को सुनकर के देवसूरि के मुख्य शिष्य माणक्य ने कहा कि हे चारण ! सिंह के कण्ठ पर रहे हुए केसरा को अपने पैरों से कौन स्पर्श कर सकता है ? तीक्ष्ण भाले को श्रांखों में कौन फेर सकता है, शेषनाग के मस्तक की मणि लेने में कौन समर्थ है उसी प्रकार श्वेताम्बराचायों के साथ वाद विवाद करने में कौन शक्तिशाली है । शिष्य के उक्त शब्द सुनकर के देव सूरि ने कहा- हे शिष्य ! कर्कश बोलने वाले दुर्जन पर क्रोध करने का अवकाश नहीं है । अर्थात् दुर्जन पर क्रोध नहीं पर दयाभाव ही करना चाहिये ।
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देवसूरि की समताने वादी के अभिमान को द्विगुणित कर दिया । वादी ने एक वृद्धासाध्वी पर उपद्रव कर उसकी बड़ी विडम्बना की । जब साध्वी उपद्रव से मुक्त हुई तो देवसूरि के पास में आकर उपालम्भ पूर्ण शब्दों में कहने लगी- आपका ज्ञान, आपकी विद्वत्ता और आपका वादजय किस काम का है ? जब कि वादी के सामने आप समता पकड़ कर बैठ गये, इत्यादि । श्राचार्यश्री देवसूरि ने साध्वी को सन्तोष पूर्ण वचन कह कर पाटण के श्रीसंघ पर एक पत्र लिखा कि यहां दिगम्बर वादी कुमुदचन्द्र आया है अतः हम चाहते हैं कि पाटण में इनके साथ वाद विवाद हो । पाटण के संघने इस पत्र का जवाब लिखा कि:आप कृपा करके अवश्य ही पाटण पधारें । राजा सिद्धराज की राजसभा में आप दोनों का वाद विवाद करवाया जायगा आपकी विजय के लिये ३०७ श्रावक श्राविकाएं श्रयम्बिल कर रहे हैं ।
देवसूरि को पाटण के श्रीसंघ का पत्र पढ़ कर बहुत ही प्रसन्नता हुई। उन्होंने चारण के साथ वादी को कहला दिया कि हम पाटण जाते हैं, अतः आप लोग भी पाटण पधार जावें । राजा सिद्ध राज की राज सभा में अपना परस्पर वाद विवाद होगा। इस बात को मुकुदचन्द्र ने सहर्ष स्वीकार करली। जिस शुभ दिन सूर्य मेषलन में चन्द्रमा सातवें और रिपुद्रोही राहु छटे लग्न स्थित रहते तथा और भी शुभ शकुन होते हुए आचार्य श्री देवसूरिने करणावती से पाटण के लिये प्रस्थान कर दिया रास्ते में भी बहुत अच्छे शकुन और शुभ निमित करण मिलते गये ।
इधर दिगम्बरचार्य भी पाटण की ओर बिहार करने लगे तो उस समय एक व्यक्ति को छीक हो ई जो प्रस्थान के लिये अशुभ थी पर विजयकांक्षी दिगम्बरों ने उस पर थोड़ा भी विचार नहीं किया । आचार्य देवसूरि क्रमश: विहार करते हुए पाटण पधारे तो मार्ग में उन्हें अच्छे शकुन हुए । पाटण पहुँचने पर पाटण श्रीसंघ ने नगर प्रवेश का बड़ा भारी महोत्सव किया । सूरिजी ने संघ धर्म देशना दी पश्चात् राजा सिद्धराज से मिले ।
इधर दिगम्वराचार्य कुमुदचन्द्र ने करणावती से विहार किया तो मार्ग में उन्हें बहुत ही अपशकुन हुए पर विजयाकांक्षी की भांति किसी की भी परवाह नहीं करते हुए वे पाटण चले आये । दोनों के वाद के लिये राजा ने मन्त्री गंगिल को कह कर यह शर्त करवा ली कि यदि दिगम्बर हार जायं तों देश से चोरों के बाहिर निकाल दिये जांय और श्वेताम्बर हार जावें तो पाटण में श्वेताम्बरों की सत्ता के स्थान पर दिगम्बरों की सत्ता स्थापित कर दी जाय ।
बाद में राजा जयसिंह सिद्धराज ने अपने पण्डित कवि श्रीपाल को देवसूरि के पास भेज कर कहलाया कि स्वदेशी हो या परदेशी, सब ही पण्डितों के लिये सरीखा मान है तथापि आप ऐसा वाद करें कि हमारे सभा की शोभा बनी रहे । देवसूरि ने कहा- आप विश्वास रक्खें, गुरु महाराज के दिये हुए ज्ञान से
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बादी का आडम्बर - सूरिजी की समना
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