Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८ से ८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
चतुर्मुखमुखाम्बोज-वन हंसवधूभम । मानसे रमतां नित्य शुद्धवर्णा सरस्वती ॥
सूराचार्य ने मंगलाचरण सुन कर कहा कि इस प्रकार के अद्भुत विद्वान् तो इसी देश में उत्पन्न हुए हैं क्योंकि सब विद्वानों ने तो सरस्वती को कुमारी ए ब्रह्मचारिणी कहा है पर आपके यहां यह वधु मानी जाती है यह एक आश्चर्य की ही बात है । दूसरा जैसे दक्षिण प्रान्त में मामा की पुत्री और सौराष्ट्र में भ्राता की पत्नी देवर से सम्बन्ध कर सकती है वैसे आपके यहां लघु भ्राता के पुत्र की पत्नी गम्य हो सकती होगी। यही कारण है कि वधु शब्द के समीप 'मानसे रमतां मम' शब्द का प्रयोग किया है। हां, देश २ का व्यवहार भिन्न २ होता है । अतः सम्भव है आपके यहां यही रिवाज हो । बेचारे अध्यापक इस का कुछ भी उत्तर न दे सके।
सायंकाल के समय अध्यापक ने राजा के पास जाकर सब हाल कह सुनाया। राजा ने अपने सेवकों द्वारा चूड़ा सरस्वती तथा सूराचार्य को बुलवाया। इनके आने के पूर्व एक शिला के बीच छिद्र कर वा कर उसको कद्रव से पूर कर राज भवन के आगमन के प्रांगण में रख दिया।
जब दोनों प्राचार्य राज सभा में आ रहे थे तो राजा ने धनुष को कान तक, खेंच कर वाण को शिला के छिद्र पर चलाया जिसको देख सूराचार्य ने एक काव्योच्चारण किया। विद्वाविद्वा शिलेयं भवतु परमतः कामु कक्रीड़ितेन । श्रीमन्पापण भेद व्यसन रसिकतां मुच २ प्रसीद ।। बेधे कौहतूलं चेत् कुलशिखरि कुलं बाणलक्षीकरोपि।ध्वस्ताधाराधरित्री नृपतिलकः तदा याति पाताल मूलम् ।
___अहा ! इस शिला को भेद डाली अतः अब धनुष क्रीड़ा हो चुकी । अब प्रसन्न होकर पाषण भेदने की रसिकता को छोड़ दो । जो लक्ष्य भेदन में तुमको कौतूहल है और कुल पर्वत को बाणों के लक्ष बनाते हो तो हे नृप तिलक ! यह निराधार पृथ्वी पाताल को चली जावेगी।
इस प्रकार के अद्भुत चमत्कार युक्त वर्णन से राजा संतुष्ट होगया । कवि धनपाल तो सूराचार्य की असाधारण विद्वता पर मुग्ध हो विचार करने लगा-जैनाचार्यों को कौन पराजय कर सकता है ? उसमें भी सूगचार्य जैसा प्रखर विद्वान का पराभव तो सम्भव ही नहीं है । राजा भोज ने सूराचार्य का सम्मान कर उपाश्रय पधारने की आज्ञा दी और सूराचार्य भी अपने स्थान पर आगये । बाद में राजा भोज ने अपनी सभा के पांच सौ पण्डितों को कहा कि तुम सब लोग गुर्जर देश के श्वेताम्बर आचार्य के साथ वाद विवाद करने को तैय्यार हो जाओ पर उन ५०० पण्डितों में से एक ने भी ऊंचा मस्तक कर राजा के कथन को स्वीकार नहीं किया पर निम्न मस्तक कर मौनावलम्बन ही किया। इस पर राजा ने कहा पण्डितों ! तुम गृहशूरा-अर्थात् घर में ही गर्जन करने वाले हो और मेरे से द्रव्य लेकर पण्डिताई के नाम पर अपना गुजराना चलाने वाले हो । इस पर एक चतुर पण्डित बोल उठा राजन् ! 'बहुरत्ना वसुंधरा' कहलाती है। अतः इस गुर्जरेश्वर को जीतने का एक ही उपाय है और वह यह कि किसी विज्ञ एवं चतुर विद्यार्थी को न्याय का अभ्यास करवाकर सब तरह से योग्य बनाइये और वादि के सामने खड़ा कर दीजिये । राजा ने कहा तो यह कार्य आपके ही सुपुर्द किया जाता है । बस, पण्डितों ने स्वीकार कर लिया और वे निपणता पूर्वक अपने कार्य करने में संलग्न होगये ।
जब निर्धारित कार्य सम्पन्न हो गया तब शुभमुहूर्त में सूराचार्य को वाद के लिये आमन्त्रित किया १२४४
घराचार्य राजा भोज की सभा में प्रवेश
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