Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककक्सूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
गया । ठीक समय पर प्राचार्यश्री राज सभा में गये और राजा ने भी सूरिजी का यथा योग्य सत्कार कर उन्हें बदिया आसन बैठने के लिये दिया जिसको रजोहरण से प्रमार्जन कर सूरिजी भी यथा स्थान विराजमान हो गये । बाद में जिस विद्यार्थी को तैय्यार किया था उसको रत्न जड़ित बहुमूल्य भूषण और बढ़िया रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित कर राज सभा में लाये । राजा ने उसको अपने उत्संग में बैठा कर सूरिजी से निवेदन किया कि यह श्रापका प्रतिवादी है । इस पर सूरिजी ने आश्चर्य युक्त शब्दों में कहा-यह बच्चा तो अभी दूध मुंहा है। इसके मुंह में दूध की गन्ध आती होगी। युवकों के वाद में यह कैसे खड़ा हो सकता है ? क्या आपकी सभा में कोई युवक एवं प्रौढ़ पण्डित नहीं है ? इस पर राजाने कहा-आपको भले ही यह बात ऐसी दीखती हो पर यह साक्षात् सरस्वती का प्रतिरूप है। इसके साथ खुशी से वाद कीजिये । हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि इसकी हार में सभा के पण्डितों की हार स्वीकार करेंगे । आचार्य श्री ने कहा-ठीक है; यह बालक है अतः भले ही पूर्व पक्ष स्वीकार करे ! इसपर विद्यार्थी ने जिस प्रकार घोखन पट्टी करके पाठ कण्ठस्थ किया था उसी प्रकार अस्खलित सभा में बोल दिया । तब सूरिजी ने कहा-अरे बन्धु ! तू अशुद्ध क्यों बोलता है ? फिर से शुद्ध बोल । विद्यार्थी ने उतावल करते हुए कहा कि मेरी पाटी पर ऐसा ही लिखा हुआ है यह मुझे निश्चय है अतः अशुद्ध नहीं। इस पर सूराचार्य ने कहा-आपके देश में पाण्डित नहीं पर शिशुत्व है । अब मुझे अपने स्थान जाने की आज्ञा दीजिये । राजा और गजा की सभा के पण्डितों के चेहरे फीके पड़ गये । वे कुछ भी नहीं बोल सके । अतः सूराचार्य चलकर अपने निर्दिष्ट स्थान पर आगये ।
सूराचार्य राज सभा से चलकर उपाश्रय में आये तो आचार्य चड़ा सरस्वती ने कहा-सूराचार्य ! आपने जैन शासन का जो उद्योत किया है इसके लिये हमें महान् हर्ष है पर साथ में आपकी मृत्यु का महान् दुःख भी हैं। राजा भोज अपनी सभा के पण्डितों का पराजय करने वालों को संसार में जीवित नहीं रहने देता है अतः आपकी मृत्यु उक्त नियमानुसार सन्निकट ही है । सूराचार्य ने कहा-आप किसी भी प्रकार का रंज न करें, मेरा रक्षण करने में मैं सर्व प्रकार से समर्थ हूँ।
इधर कविचक्रवर्ती पण्डित धनपाल ने अपने अनुचरों के साथ कहलाया कि पूज्यवर ! हमारे महान् भाग्योदय है; इसीसे आप जैसे विद्वानों का सत्संग प्राप्त हुआ है पर इस भावी विकट परिस्थिति का मुझे बड़ा ही दुःख है अतः कृपा कर सत्वर हमार यहां पधारे जावें। यहां आने पर किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा, मैं आपको सकुशल गुर्जर भूमि में पहुंचा दूंगा । इसप्रकार धनपाल के अनुचर सूराचार्य के पास आकर सब निवेदन कर रहे थे कि राजा की ओर से कई घुड़ सवार वहां आ पहुंचे और चैत्य को चारों ओर से घेर लिया । वे कहने लगे कि राजसभा के पण्डितो को परास्त करने वाले श्रापके अतिथी को राजसभामें भेजिये कि उनका सन्मान किया जाय और जयपत्र दिया जाय । चूड़ा सरस्वती ने कहा- जल्दी न करो वे अपने क्रिया काण्ड से निवृत्त होकर आयेंगे। इतने में सूराचार्य अरणगार के मलीन एवं जीर्ण वस्त्र पहिनकर, वेश परिवर्तित कर पानी लाने को उपाश्रयके बाहिर जारहे थे कि घुड़ सवारों ने उनको रोक दिया और कहाजब तक गुर्जर पण्डित को हम रे अधीन न करेंगे वहां तक कोई भी भिक्षु बाहिर जा नहीं सकेगा । इस पर भिक्षु ने कहा सूरिजी अन्दर विराजमान हैं, उनको लेजाओ मैं तो यहां रहने वाला हुँ । गरमीके मारे तृषातुर बना हुआ पानी के लिये जारहा हूं और तुमलोग मुझे रोकते हो यह ठीक नहीं है। भिक्षुके उक्त वचन से एक सवार को दया आगई और उसने उसे जाना दिया, पर वे थे सूराचार्य हो । सूराचार्य चलकर धनपाल राजा भोजकी सभा के पण्डितों का पराजय
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