Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
करने का है। हां, संसार व्यवहार निर्वाह ने के लिये वे अवश्य व्यापारादि उद्योग करते हैं उसमें भी पन्द्रह कर्मादानादि अधिक पाप का संभव हो उसे वे करना नहीं चाहते हैं तब नये नये आविष्कारों का निर्माण करने में एक तो समयाधिक चाहिये कि तमाम जिन्दगी ही इन कार्यों में खत्म करनी पड़ती है दूसरी तृष्णा भी इतनी बढ़ जाति है कि आत्मकल्याण प्रायः भूल ही जाते हैं आज हम पाश्चात्यो को देखते हैं कि नये नये आविष्कारों में अनाप सनाप आरंभ सारम्भ होते हैं वहां स्थावर जीव तो क्या पर त्रस जीवों की भी गिनती नहीं रहती है यही कारण है कि वे जानते हुए भी महापापारंभ के कार्य में हाथ नही डालते थे पर इससे यह तो कदापि नहीं समझा जा सकता है कि उन्होंने जिस कार्य को इस्तेमाल में नहीं लिया उसका सर्वथा अभाव ही था अर्थात् आज जितने नये नये आविष्कार निर्माण किए जाते हैं वह भारत में हजारों लाखों वर्ष पूर्व भी थे और भारत के विज्ञ लोग इन सब कार्यों को पहले से ही जानते थे यदि यह कहा जाय कि पाश्चात्य लोगों ने यह शिक्षा भारत से ही पाई है इसमें थोड़ी भी अत्युक्ति नहीं है। बस, इतना कह कर ही मैं मेरे इस लेख को समाप्त कर लेखनी को विश्रान्ति देता हूँ । श्रीमस्तु, कल्याणमस्तु । भगवान महावीर की परम्परा श्रीमान् विजयसिंहसरि
मेह पर्वत के शिखर के समान उन्नत दुर्गों से सुशोभित, समस्त नगरों का मुकुट स्वरूप श्रीपुर नामका एक विख्यात नगर था । उसके बाह्य उद्यान में द्वितीय तीर्थङ्कर श्रीअजितनाथ स्वामी का पदार्पण हुआ इससे वह, तीर्थ तरीके प्रसिद्ध हुआ। पुष्कल समय के व्यतीत होने के पश्चात् चंद्रप्रभस्वामी का वहां समवसरण हुआ तब वह चन्द्रपुर के नाम से विख्यात हुआ। कालान्तर में वह पुनः क्षीण हो गया तब भृगु नामक महर्षि ने उस नगर का पुनरुद्धार किया जिससे ऋषि के नामानुरूप यह पुर भृगु पुर नाम से प्रख्यात हुआ । कलिकाल के कलुषित तामस भाव को दूर करने में प्रवीण ऐसा जितशत्रु नामक एक जगविश्रुत समर्थ राजा उस नगर में राज्य करता था।
एकदा यज्ञानुयायी ब्राह्मणों के आदेश से जितशत्रु गजा ने तीन कम छ सौ ( ५९७ ) बकरों को यज्ञ में हवन कर दिया । अन्तिम दिवस वे ब्राह्मण एक सुंदर अश्व का होम करने के लिये श्राश्वको वहां लाये । तत्समीपस्थ रेवा नदी के दर्शन से उस अश्व को पूर्व भव का ज्ञान ( जातिस्मरण ) होगया।
इतने में उस अश्व को अपने पूर्व भव का मित्र जानकर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने एक ही रात्रि में १२० गउ चल कर मार्गस्थ सिद्धपुर में क्षण भर विश्रान्ति ले प्रतिष्ठान नाम के नगर से भृगुपुर में पदार्पण किथा । तीस हजार मुनियों से घेरे हुए प्रभु मुनिसुव्रत ने कोरंटक नाम के बाह्य उद्यान में एक आम्रवृक्ष के नीचे समवसरण किया। उनको सर्वज्ञ समझकर राजा जितशत्रु आदि अश्व सहित वहां आया और प्रभु को यज्ञ का फल पूछा । भगवान ने फरमाया-"राजन ! प्राणियों के वध से तो निश्चित ही नरक की प्राप्ति होती है।" इधर पूर्व भव के स्नेह वश भगवान के दर्शन से अश्व के लोचनों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी उसके पश्चात् जिनेश्वर देवने राजा के समक्ष उनको प्रतिबोध देते हुए फरमाया-हे अश्व ! तेरा पूर्व भव सुन और हे सुज्ञ ! सावधान होकर प्रतिबोध को प्राप्त कर ।
पहिले इस नगर में समुद्रदत्त नामका एक जैन व्यापारी रहता था। उसने सागरपोत नाम के अपने मिथ्यादृष्टि मित्र को जीवदया प्रधान जैनधर्म का उपदेश देकर प्रतिबोध दिया। इससे वह बारहव्रत धारी
आचार्य विजयसिंहसरि
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