Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचा कक्कसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १९७८-१२३७
बहुत ही घबरा गया और इधर उधर पलायन करने लगा । उक्त बौद्धाचार्य के शिष्य वर्ग में एक शिष्य बड़ा ही चालाक, एवं विद्वान था । वह वाद करने को हरिभद्रसूरि के सन्मुख आया पर हरिभद्रसूरि जैसे तर्क वेत्ता के सम्मुख उनकी दाल कहां तक गल सकती थी ? बेचारा क्षत्र मात्र में पराजित हो गया अतः तप्त तेल के कुण्ड का अतिथि बना दिया गया । इस तरह कई शिष्यवाद करने को आये और उन सब का यहो हाल हुआ ।
हे देवि !
हताश हुए बौद्ध भिक्षु अपनी अधिष्ठायिका तारादेवी को याद कर उपालम्भ देने लगे कि चिरकाल से हम चंदन, केशर, कुंकुम धूप और मिष्टान्न से तेरी पूजा करते हैं पर तू इस संकट समय में भी हमारे काम नहीं आई श्रत: तेरी पूजा हमारे लिये तो निरर्थक ही सिद्ध हुई । इससे तो किसी सामान्य पत्थर की पूजा करते तो अच्छा था । समीप में रही हुई देवी भिक्षुत्रों के दुर्वचनों को सुनकर देवी बोली अरे भिक्षुओं ! तुम लोगों ने कैसा अन्याय किया है ! दूर देश से ज्ञानाभ्यास के लिये आये हुए जैन श्रमणों को जिन प्रतिमा पर पैर रखवाने का प्रपञ्च किया पर वे धर्मनिष्ट श्रमण अपना सर्वथा बचाव कर चले गये फिर भी तुम लोगों ने बिना अपराध उनको मारडाला । इसी अन्याय के फल स्वरूप तुम्हारे गुरु और भिक्षुओं को यम कलेवा बन पड़ा । मैं सब हाल जानती थी पर अपने ही किये कमों का फल समझ कर उपेक्षा कर रही थी। अब भी मैं तुमको कहती हूँ कि तुम लोग अपने स्थान पर चले जाओगे तो मैं पूर्ववत तुम लोगों की रक्षा करती रहूंगी अन्यथा उपेक्षा ही समझना । इतना कहकर देवी अदृश्य होगई, देवी के कहे हुए वचनानुसार बौद्ध लोग भी स्वनिर्दिष्ट स्थान पर चले आये ।
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यहां पर कई लोग यह भी कहते हैं कि महामंत्र के बल से हरिभद्रसूरि बौद्ध भिक्षुओं को जबरन खींच २ कर तप्त तेल कुण्ड में डाल रहे थे तब उनकी धर्म माता याकिनी पञ्चेन्द्रिय जीव मारने का प्रायश्चित लेने की सूरि जी के पास गई तो उनको अपने उक्त कृत्य पर पश्चाताप हुआ और उसे छोड़ दिया ।
जब यह वृत्तान्त हरिभद्रसूरि के गुरु जिनदत्तसूरि ने सुना तो शिष्य को शान्त करने के हेतु दो शान्त श्रमणों के हाथ समरादित्य के जीवन की तीन गाथा लिखकर दी और उन्हें हरिभद्रसूरि के पास भेजा । वे दोनों श्रमण भी क्रमशः राजा सूरपाल की राज सभा में श्राये और गुरु संदेश सुनाकर हरिभद्र सूरि की सेवा में तीनों गाथाएं रखदी ।
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गुणसे अगिसम्म सहाणंदा य तह पिया पुता । सिंहजालिणी माइसुआ धण, धणसिरि मोहयपइभा ॥ १ ॥ जय विजया य सहोअर धरणो लच्छी य तहप्पड़ मजा । से विसेणा य पित्तिय उत्ता जम्ममि सत्तिए ||२|| गुणचंद अ वाणमंतर समराइच्च गिरिसेण पाणोय । एगस्स त ओ मोक्खोऽतो अन्नरस संसारो ||३||
अर्थात् प्रथम भव में गुणसेन और अग्निशर्मा, दूसरे भव में सिंह और श्रानंद पिता पुत्र हुए। तीसरे भव में शिखि और जालीनी माता पुत्र हुए। चतुर्थ भव में धन और धनपती पति पत्नी हुए। पांचवे भव में जय और विजय दो सहोदर हुए, छट्टे भव में धरण और लक्ष्मी पति-पत्नी हुए, सांतवें भव में सेन
समरादित्य की तीन गाथा से संतोष
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