Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० ११७८-१२३७
से लेकर के लिख देने से कोई लेखक नहीं गिना जाता है । लेखक तो समरादित्य कथाकार जैसे होने चाहिये ।
इस पर सिद्धर्षि ने विद्वानों के मस्तक को कम्पाने वाली उपमतिभवप्रपञ्च नामक स्वतंत्र महाकथा की रचना की जिसे प्रसन्न हो संघ ने व्याख्यान योग्य कथा होने से व्याख्यानकार विरुद्ध दिया। स्वयं दाक्षिएयचंन्हसूरि भी मुग्ध हो गये।
अब तो इनकी इच्छा और भी अधिक अभ्यास करने की हुई । उन्होंने विचार किया कि मैंने स्व-पर अनेक मत के तर्क ग्रंथों का अभ्यास कर लिया है पर बौद्ध ग्रंथों के लिये तो उनके देश में गये बिना अभ्यास हो नहीं सकता है अतः आतुर बने हुए सिद्धर्षि ने गुरु से निवेदन किया - गुरुदेव ! आज्ञा दीजिये, मैं बौद्ध शास्त्रों का अभ्यास करने कोजाऊं । श्रुतज्ञान व निमित्त को देख कर गुरु ने कहा- वत्स ! तेरा उत्साह स्तुत्य है पर उनके हेत्वाभासों से तेरा चित्त कदाचित भ्रमित् हो जाय तो उपार्जित किये हुए पुण्य को ही खो बैठेगा । यह बात मैं मेरे निमित्त ज्ञान से जानता हूँ अतः तू तेरे विचारों को बदल दे । इस पर भी तेरी जाने की इच्छा हो और वहां हेत्वाभासों से प्रेरित हो चलित हो जाय तो भी एक बार मेरे पास अाना और व्रत के अंगरूप रजोहरण वगैरह मुझे दे देना।
सिद्धर्षि ने कहा-गुरुदेव ! मैं कृतघ्न कभी नहीं होंऊंगो फिर भी धतूरे के भ्रम से मन व्यक्षिप्त हो जायगा तो भी आपके आदेश का तो अवश्य ही पालन करूगा । ऐसा कह कर गुरु को प्रणाम किया
और अव्यक्त वेष में महाबोध नगर को चला गया। वहां पर सिद्धर्षि ने अपनी कुशाग्र बुद्धि से सब को चकित कर दिया । बौद्धाचार्यों ने अपनी ओर आमर्षित करने के लिये बहुत प्रयत्न किया पर सब निष्फल हुआ । अन्त में चन प्रपंच द्वारा प्रलोभनों से उन्हें फुसलाने का प्रयत्न किया और अतिसंसर्ग-परिचय से वे जैन श्राचार विचार में शिथिल हो गये । कालान्तर में सिद्धर्षि ने बौद्ध दीक्षा भी ग्रहण कर ली। वस! सिद्धर्षि की सविशेष योग्यता से आकर्षित हो उनको गुरु पद पर बौद्ध लोग स्थापित करने लगे तो सिद्धर्षि ने कहाझाते हुए मैंने प्रतिज्ञा ली थी इससे मुझे मेरे पूर्व गुरु के दर्शन, प्रतिज्ञा निर्वाहार्थ अश्य करना है । बौद्धों ने भी उनको उनके पूर्व गुरु के दर्शनार्थ भेज दिया । क्रमशः उराश्रय में गर्षिको सिंहासन पर बैठे हुए देख सिद्धर्षि ने कहा--आप उर्ध्वस्थान पर शोभित होते हों। ऐसा कह कर मौन होगये।
गुरु ने भावी समम कर सिद्धर्षि को आसन देते हुए कहा-हम चैत्यवंदन करके आते हैं जितने तुम जरा चैत्यवंदन सूत्र की ललितविस्तार वृत्ति देखो।
उक्तग्रंथ को देख कर महामति सिद्धर्षि को अपने किये अकार्य पर रह२ कर पश्चाताप होने लगा । वह विचार ने लगा कि हरिभद्रसूरि ने मुझ पातकी को तारने के लिये ही इस ग्रंथ का निर्माण किया है । धन्य है, मेरे गुरु को जिसने मुझे उक्त प्रतिज्ञा देकर स्खलित होते हुए की रक्षा की है। इस प्रकार गुरुदेव की स्तुति और अपनी आत्मा की गहणा करते हुए पुस्तक बांचन में संलग्न थे कि गुरु ने निस्सीहि शब्द से उपा अय में प्रवेस किया। सिद्धर्षि ने गुरु चरण में मस्तक नमा कर अपराध के लिये बारम्बार क्षमा मांगी। प्राय श्चित के लिये आग्रह किया व गुरु के उचित वचनों को न मानने का पश्चाताप किया।
गुरुने, सिद्धर्षि को सान्त्वना प्रदान कर सन्तुष्ट किया और प्रायश्चित देकर शुद्ध किया । कालान्तर में गच्छ का भार सिद्धर्षि को सौंप कर गर्षि आत्म-निवृत्ति के परम मार्ग में संलग्न होगये । व्याख्यान कर सिद्धर्षि ने भी अपने पाण्डित्य से जैन शासन की खूब प्रभावना की । आप भी चैत्यवासी ही थे बोद्धों के शास्त्राभ्यास के लिये
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