Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
को साथ में लेकर हमारे मकान पर आयो और भूमि पर बैठकर हमारा वचन कौतुक देखो। राजा ने भी उसके मान को गारत करने के लिये उसकी इस अनुचित शर्त को स्वीकार करली । प्रातःकाल शिष्य समुदाय सहित गोविंदाचार्य को साथ में लेकर राजा सांख्याचार्य के मकान पर गया। प्राचार्यश्री अपनी कम्बली बिछाकर मूमि पर बैठ गये । पीछे वीरसूरी का श्रासन रक्खा । राजा स्वयं सम्मुख भूमि पर बैठ गया पर अभिमान का पुतला सांख्याचार्य अपने उच्च आसन पर ही बैठ रहा । अागत श्रमण समुदाय को देख उसने सदर्प पूछा-मेरे साथ विवाद करने को कौन तय्यार है ? गोविंदाचार्य ने कहा --मैं और मेरे बड़े शिष्यों के साथ तो तुम वाद करने काबिल नहीं हो पर मेरा लघु शिष्य ही तुम्हारे लिये पर्याप्त होगा। बस तत्काल धर्म विवाद प्रारम्भ कर दिया। बेचारा सांख्याच र्य वादीगज केशरी वीरसूरि के सम्मुख नहीं ठहर सका । लीला. मात्र में ही वह पराजित हो अपना शाम मुंह करके बैठ गया।
राजाने * संख्याचार्य का गला पकड़ कर आसन से नीचे उतार दिया। जब कि वाद करने की योग्यता ही तुममें नहीं तो फिर यह अभिमान का उच्चतम आसन क्यों ? राजाइसे शिक्षा देना चाहता था पर गोविन्दाचार्य ने दयापूर्वक उसे छुड़वा दिया ।
इसी प्रकार सिद्धराज ने एक बार मालवा पर चढ़ाई की । मार्ग में वीराचार्य का चैत्यआया । राजा ने वंदन किया। वीराचार्य ने पाशीर्वादि के रूप में एक काव्य बना कर दिया। जिससे राजा की विजय हुई।
एक बार कमलकीर्ति नामक दिगम्बराचार्य को भी पाटण की राज सभा में परास्त किया इत्यादि ।
श्रीवीराचार्य का जीवन वृत्त अवर्णनीय है पर यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसे प्रभाविक पुरुष होने पर भी कदी के कार्य में विघ्न क्यों किया ? इसके दो कारण होसकते हैं या तो अपनी मन्त्र शक्ति बतलानी हो या कलिकाल ने इसके लिये प्रेरणा की हो । कुछ भी हो उस समय के चैत्यवासियों में ऐसे अनेक प्रतिभाशाली आचार्य हुए जिन्होंने जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बनाने का सफल प्रयत्न किया । अपनी प्रखर प्रतिभा से जैनधर्म की सर्वत्र प्रभावता एवं उन्नति की।
प्राचार्य वप्पमटि सरि डुवातिथि नामक प्राम में बप्पनामका गृहस्थ ब्राह्मण रहता था। उसके भट्टी नामकी भार्या थी और सूरपाल नामका एक पुत्र था। जब सूरपाल ५-६ वर्ष की वय का हुआ तो एकदिन अपने पिता से रूष्ट होकर घर से निकल कर मोढेर ग्राम में चला गया। उस समय गुर्जर प्रान्त में पाटल पुर नामका एक अच्छा आबाद नगर था वहां पर मोदेर गच्छीय सिद्धसेन नामक आचार्य रहते थे।
एक दिन आचार्यश्री ने स्वप्न में महातेजस्वी बालकेशरी को फलॉग मार कर चैत्य शिखर के अग्रभाग पर आरूढ़ होते हुए को देखा । प्रातकाल आपने विचार किया और अन्य मुनियों को अपने स्वप्न का भावीफल सुनाया कि इस स्वप्न से वादी रूप हस्तियों के गण्डस्थल को भेद देने वाले मुनियों में अप्रगण्य शिष्य की प्राप्ति होगी. इत्यादि ।
जिस दिन सूरपाल मोरे में आया था। उसी दिन सिद्धसेनसूरि भि महावीर प्रभु की यात्रार्थ मोरे में पधारे थे। जिस समय सूरिजी मन्दिर में गये उस समय सूरपाल भी वहीं पर बैठा हुआ था।
___*-- न शक्तोऽ हमिति प्राह वादि सिंहस्ततो नृपः । स्वयं वाहै विश्त्यामुपातयामास भूतले । ६ ॥ १२०४
आचाय बप्पमट्टि सरिः
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