Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८२७
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
वह पराजित हो लज्जा भार नत मस्तक हो गया। इस प्रकार सूरिजी की असाधारण विजय को देख सभा ने आपको वादी कुञ्जर केशरी की उपाधि दी और तब ही से आप बादी कुञ्जर केशरी के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
जब बादी की पराजय में राजा धर्म ने अपनी पराजय स्वीकार करली तव राजा श्रम; धर्म राजा की राज्य सत्ता अपने अधीन करने का विचार करने लगा परन्तु आचार्यश्री के गाम्भीर्य गुण परिपूर्ण उपदेश से राजा आमने धर्मराजा के राज्य को उसके सुपूर्द कर दिया। बाद में वर्द्धन कुब्जर और बप्पभट्टि सूरि बड़े ही प्रेम के साथ एकत्र हो वीर भुवन में गये । भगवान् महावीर की शान्त, वैराग्य मय प्रतिमा को देख कर बौद्धाचार्य को परम शान्ति हुई और उसने एक स्तुति बनाकर प्रभु के गुणगान किये। बाद में सूरिजी ने जैन धर्म के तत्वों के स्वरूप को समझाया जिससे वर्द्धन कुञ्जर के हृदय में अन धर्म के प्रति श्रद्धा होगई। एक रात्रि में श्राचार्य श्री जागृत थे तब वर्द्धन कुञ्जर ने चौथे प्रहर में सूरिजी को चार अक्षरवाली चार समस्याएं पूछी जिसकी सूरिजी ने तत्काल पूर्ति करदी |
एको गोत्रे- स भवति पुमान् यः कुटुम्बंविभर्ति | सर्वस्य द्वे - सुगति कुगती पुर्वजन्मानुषद्धे || स्त्रीपुंवच --- प्रभवति यदा तद्वि गेहं विनष्टं । वृद्धोयुना -- सह परिचयात्यज्यते कामिनीभिः ॥
अब तो बौद्धाचार्य श्राचार्यश्री की ओर और भी अधिक प्रभावित हुआ और उसने श्रावक के बारह तभी धारण कर लिये। बाद सूरिजी की आज्ञा लेकर अपने स्थान चला गया और राजा धर्म भी श्राम राजा से अनुमति लेकर अपने राज्य में चला गया । एकरा बौद्धाचार्य ने राजा धर्म से कहा कि बप्पभट्टिसूरि ने मुझे पराजित किया इसका तो कुछ भी रञ्ज नहीं पर वाक्पतिराजा ने मुख शौच करवा कर मेरा पराजय करवाया यह मुझे खटक रहा है | राजा ने वर्द्धन कुञ्जर की बात सुन करके भी वाक्पतिराज से प्रीति कम नहीं की ।
एक समय धर्मराजा पर यशोवर्माराजा चढ़ आया । उस समय वाक्पति कारागृह में बन्द कर लिया गया था पर अपूर्व काव्य रचना से सन्तुष्ट हो राजा ने उसे बन्धन मुक्त कर दिया | वाक्पतिराज वहां से चलकर कन्नौज में आया और सूरिजी से मिला । पूर्वघनिष्ठता के स्वभाव व सौजन्य के कारण सूरिजी वाक्पति राज को राज सभा में ले गये । वाक्पतिराजा ने राजा आम की ऐसी स्तुति बनाई कि राजा श्रम सन्तुष्ट हो गया राजा श्राम ने राजा धर्म से दुगुना सत्कार सम्मान किया उसकी आजीविका का भी अच्छा प्रबन्ध कर दिया श्रतः पं वाक्पतिराज सूरिजी एवं राजा के सहवास में आनन्दपूर्वक रहने लगे ।
एक दिन राजा आम सूरिजी की विद्वत्ता की प्रशंसा करता हुआ कहने लगा कि आपके जैसा विद्वान् देवताओं में भी नही है तो मनुष्य में तो हो ही कैसे सकता ? सूरिजी ने कहा- हे राजन् ! पूर्व जमाने में बड़े २ विद्वान हो चुके हैं कि मैं उनके चरण रज के तुल्य भी नहीं हूँ पर वर्तमान में भी हमारे वृद्ध गुरु भ्राता नन्नसूरि ऐसे विद्वान हैं कि मैं उनके सामाने एक मूर्ख ही दीखता हूँ । इस पर राजा वेश परिवर्तित कर नन्नसूरि को देखने के लिये गये तो उस समय नन्नसूरि गुजरात के हस्तजय नगर में विरामते थे । राजा वहां गया तो चामर छत्रं संयुक्त एवं सिंहासन पर बैठे हुए नन्नसूरि को देखा । आचार्यश्री के उक्त वैभव को देख कर राजा आम के हृदय में इस प्रकार की शंका हुई कि त्यागी गुरुओं के यहां इस प्रकार का राज्य वैभव क्यों ? इस विषय में चरित्रकार ने बहुत ही विस्तार से लिखा पर थ
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चार पदों की चार समस्याओं की पूर्ति
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