Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११७८-१२३७
किले पर पड़ी बस फिर तो कहना ही क्या किला स्वयं टूट पड़ा और राजा की विजय होगई । राजगृह का राजा समुद्रसेन वहां से चला गया। वहां पर यक्ष था वह भी राजा के अधीन होगया। राज ने अपनी आयुष्य पूछी तो यक्ष ने कहा-जब तुम्हारा छ मास का आयुष्य शेष रहेगा तब मैं कह दूंगा । बाद में अव. सर जान कर यक्ष ने कहा कि हे राजन् गङ्गाजी के अन्दर मगधतीर्थ को जाते हुए जिसकी श्रादि में मकार है ऐसे प्राम में तुम्हारी मृत्यु होगी। साथ में यह भी ध्यान रखना कि उस समय जल से धूम्र निकलेगा इत्यादि । इस पर राजा सावधान हो गुरु के साथ तीर्थ यात्रा को निकल गया । साथ में अपनी सैन्यादि सब सामग्री भी ली। सबने पहिले शत्रञ्जय तीर्थ जाकर युगादीश्वर का पूजन बन्दन किया बाद में वहां से गिरनार गये । वहां दश राजा दश संघ लेकर गिरनार आये पर वे तीर्थ पर अपना हक्क रखते हुए दूसरे को पहिले नहीं चढ़ने देते थे । राजा श्राम संग्राम करने को तैय्यार होगया पर बप्पभट्टिसूरि ने राजा को युक्ति से समझाया और दिगम्बरों से युक्ति र.जर करवाई । एक कन्या को दिगम्बरों के यहां भेजी और कहा कि आप में शक्ति हो तो इस कन्या को बुलावो। इस पर सूरिजी ने अंबादेबी का स्मरण कर कन्या पर हाथ रक्खा कि अम्बादेवी कन्या के मुख में प्रवेश कर बोली जिससे श्वेताम्बरों की विजय हुई श्राकाश में बाजे गाजे हुए । तत्पश्चात् पहिले श्वेताम्बरों ने गिरनार पर चढ़ कर नेमिनाथ की पूजा की और वहां पुष्कल द्रव्य व्यय किया । बाद में द्वारिका प्रभासपाटण वगैरह तीर्थों की यात्रा कर वापिस कन्नौज आगया !
अवसर के जान राजा ने अपने पुत्र दुंदुक को राज्य स्थापन कर श्राप गुरु के साथ मगध तीर्थ की यात्रार्थ चले। नाव में बैठे हुए गंगा नदी उत्तर ने में ही थे कि जल में धूवां देखा कि राजा को यक्ष की वात याद आई और मगरोड़ा प्राम में पहुँचा ।
। आचार्यश्री ने कहा-राजन् ! समय आगया है अब तू आत्म-कल्याण के लिये जैनधर्म स्वीकार कर । राजा ने देव अरिहत, गुरुनिम्रन्थ और धर्म वीतराग की श्राज्ञा एवं सच्चे दिल से जैनधर्म स्त्री कारकर लिया।
बीच में राजा ने कहा-हे गुरु ! आप भी देह त्याग करो कि देव भव में भी हम मित्र बने रहें। सूरिजी ने कहा-राजन् ! यह तुम्हारी अज्ञानता है । जीव सब कर्माधीन है । कौन जाने कौन कहां जायगा मेरी आयुः अभी ५ वर्ष की शेष रही है।
वि० सं० ८९० भाद्रशुक्ला पञ्चमी शुक्रवार चित्रा नक्षत्र के दिन राजा श्रामने पञ्च परमेष्टि का ध्यान और आचार्यश्री के चरण का स्मरण करता हुआ देह त्याग किया।
बाद में सूरिजी को भी बहुत रंज हुआ आखिर आप कन्नौज चले आये । इधर राजा दुंदुक एक वैश्या से गमन करने के इश्क में पड़ गया इससे वह विवेक हीन की तरह भोज को मरवाने लगा । राणी, राजा के कृत्य को देख अपने पुत्र भोज को पाटलीपुत्र में अपने मुसाल में भेज दिया ।
एक दिन राजा दुंदुक आचार्यश्री को कहा कि जाओ आप भोज को ले आओ। सूरिजी ने कई अर्सायोग ध्यान में निकाल दिया। जब राजा ने अत्याग्रह किया तो सरिजी ने नगर के बाहिर जाकर विचार करने लगे कि भोज को लाऊं और वैश्या सक्तराजा पुत्र को मार डाले, नहीं लाऊं तो राजा कुपित हो जैनधर्म का बुरा करे अतः अनशन करना ही ठीक सममा । तदनुसारसूरिजी २१ दिन के अनशन की धाराधना कर पण्डित्य मरण से ईशान देवलोक में देव पने उत्पन्न हुए।
वि० सं० ८०० भाद्र-शु-तीज रविबार हस्तनक्षत्र में श्रापका जन्म हुआ। ६ वर्ष की वय में दीक्षा। राजा आम की तीर्थयात्रा-जैनधर्म स्वीकार
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