Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८ से ८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
नहीं कर सकता अतः यहां पर भी बहुत से अन्यमत के शास्त्रों के ज्ञाता आचार्य हैं, तुम उन्हीं के पास जाकर पढ़ो। भवितव्यता बलवान है, अतः गुरु के बचनों को स्वीकार नहीं करते हुए शिष्यों ने पुनः पुनः प्रार्थना की। इस पर गुरु ने कहा- मेरी तो इच्छा नहीं है पर तुम्हारा इतना आग्रह है तो जैसा तुमको सुख हो वैसा करो । बस, दोनों शिष्य वेश बदल कर बौद्धों के नगर में आये और खाने पीने का अच्छा प्रबन्ध होने पर वे बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने में संलग्न होगये । बौद्धाचार्य जहां २ जैनागमों का खण्डन करते थे वहां २ हंस, परमहंस श्रर्थ युक्ति प्रमाण से बौद्धों का खण्डन अपने हाथों से लिख लेते थे । इस प्रकार बहुत समय तक अभ्यास किया । एक दिन इधर से तो हंस, बौद्धों का खण्डन लिख रहा था और उधर जोरों से मंगवायु चला जिससे अकस्मात् कागज उड़ गया । वह पत्र दूसरे छात्रों के हाथ लगा और उन लोगों ने जाकर बौद्धाचार्य को दे दिया । इसको पढ़ कर बौद्धाचार्य आश्चर्य के साथ दुःखी भी हुआ कि अहो मेरी असावधानी के कारण जैन धर्म के छात्र मेरा ज्ञान ले जा रहे हैं पर इसके सत्यासत्य का निर्णय कैसे हो सकता है ? इसके लिये सोपान पर एक जैन मूर्ति का अवलोकन कर सर्व विद्यार्थियों को ऑर्डर कर दिया कि इस मूर्ति पर पैर रख कर ही नीचे उतरना । इस भीषण हुक्म को सुन कर हंस परमहंस को बड़ा ही विचार हुआ । वे गुरु वचनों को याद करने लगे कारण, उनके लियेयह बड़ा ही विक्ट समय था । यदि मूर्ति पर पैर नही रक्खे जॉय तो जीवितरहना मुश्किल था और तीर्थकरों की मूर्ति पर पैर रखना एक जिनदेव की जान बूझ कर महान् आशातना करना था श्रतः वे विचार विमुग्ध हो गये । इतने में उनको एक उपाय सूम पड़ा और उन्होंने एक खड़ी का टुकड़ा हाथ में लेकर उस मूर्ति के वक्षस्थल पर यज्ञोपवीत की भाँति तीन रेखा खींच दी और उसे बुद्ध की मूर्ति बनादी बस वे भी मूर्ति पर पैर रख कर चले गये इससे सब बौद्धों को मालूम होगया कि ये जरूर ही जैन हैं। बहुत से बौद्ध उन दोनों जैन मुनियों का बदला लेने लगे तब श्राचार्य ने कुछ धैर्य रखने को कहा। जब वे दोनों रात्रि में शयन गृह में सो गये तो बौद्धों ने उनके चारों ओर पहरा लगा दिया। पर जब वे दोनों जागृत हुए तो छतों से नीचे उतर कर पलायन करने लगे । उनको भागते हुए देखकर मारो होगये । इस पर हंस ने परम हंस को कहा कि तू जल्दी से गुरु कहना कि हम लोगों ने श्रापका कथन स्वीकार न कर जो आपका साथ ही मेरा मिच्छामि दुक्कड़ कह कर मेरी ओर से क्षमापना करना । यदि तू वहां तक न पहुँचे तो पास ही में सूरपाल राजा का राज्य है और वह शरणागत प्रतिपालक भी है अतः तू वहां जाकर अपने प्राण बचालेना | परम हंस चला गया और हंस पर हजारों योद्धा टूट पड़े । हंस ने खूब संग्राम किया पर आखिर वह था अकेला ही अतः बौद्धों ने उसको मार डाला ।
२ करते हुए हजारों बौद्ध योद्धा उनके पीछे महाराज के पास जा और मेरी ओर से विनय किया उसका फल हमें मिल गया है
इधर परम हंस चल कर सूरपाल राजा के शरण आया । बौद्ध को भी इस बात का संदेह हुआ अतः उन्होंने राजा को कहा- हमारे अपराधी को हमें सौंप दो । राजा ने कहा- मेरे शरण में आये हुए व्यक्ति नहीं मिल सकते हैं । अन्त में बहुत कुछ कहने सुनने के पश्चात् यह शर्त हुई कि - हम दोनों का आपस वाद विवाद हो । उसमें यदि उसकी जय होगी तो उसको छोड़ दिया जायगा अन्यथा । हमारा अपराधी हमें देना पड़ेगा । पर हम इस जैन अपराधी का मुंह नहीं देखेंगे श्रतः पर्दे में रह कर ही उससे हम बाद करेंगे । पर्दा रखने का कारण यह था कि पर्दे में बौद्धों की इष्ट देवी वादी के साथ बोलती थी ।
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हंस परमहंस बोद्धों के वहाँ
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