Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
को चन्द्रकुलोत्पन्न भी मानते हैं। जब चंद्रकुल कोटिकगण की शाखा में हुआ है तब देवेन्द्रवंद्य शालकाचार्य कोटिक गण से बिलकुल अलग हैं। सुमति नागल की चौपाई में ब्रह्मर्षि नाम के मुनि ने लिखा है कि पंडिलगच्छ के कालकाचार्य वीरात् ९९३ वर्ष में हुए हैं । यदि यह सत्य है तो वीर संवत् ९९३ के कालकाचार्य चंद्रकुल में हुए हैं। अतः पंडिलगच्छ विक्रम की छट्टी शताब्दी जितना पुराना गच्छ कहा जा सकता है। इसी पंडिलगच्छ में भावदेवसूरि हुए और उनके नाम से भावहड़ा गच्छ प्रचलित हुआ। जैसे उपकेशगच्छ, कोरंटगच्छ में पांच नाम, पल्लीवाल गच्छ में सात नाम, वायटगच्छ में तीन नाम से गुरु परम्परावली चली आ रही है वैसे भावहड़ागच्छ में भी भावदेवसूरि, विजयसिंहसूरि वीरसरि और जिनदेवसूर इन चार नाम से गुरु परम्परा चली आ रही है । भावहड़ागच्छ में वीरसूरि नामकेकई प्राचार्यहो गए हैं पर प्रस्तुत वीरसूरि पाटण के राजा सिद्धराज (जयसिंह) के समसामयिक वीरसूरिहुए इनका ही यहाँ वर्णन है ।
प्रस्तुत वीरसूरि महा प्रतिभाशाली आचार्य हुए थे । योग, समाधि, ध्यान, या मंत्र विद्या तो आपके हस्तामलक की भांति प्रत्यक्ष सिद्ध थी। शास्त्रार्थ में वादियों को पराजित करने में कुशल एवं सिद्धहस्त थे । विजय श्री सदैव आपके ही कण्ठाभरण बनती थी । आप चैत्यवासियों के अप्रगण्य नेता और सिद्धराज जयसिंह की राज सभा के एक सम्मानित पण्डित्त थे और हमेशा राजा के सहवास में रहते थे पर कहा है कि"अति परिचायदवज्ञा सतत गमनादनादरो भवति । मलयेभिल्लपुरंध्री चन्दन तरु कण्ठानिधनंकुरुते ॥"
इस नीति के अनुसार राजा जयसिंह ने राज्यमद के स्वाभाविक अहंभाव से या उपहास की अनुचित चञ्चलता के आवेश में मुस्कराहट के साथ कह दिया कि
"मित्र सूरिजी ! आपका इतना मान, सन्मान, प्रतिष्टा एवं आदर मेरे राज्याश्रय से ही होता है । यदि आप पाटण को छोड़ कर अन्य प्रान्त में चले जावें तो आपका एक निराधार भिक्षु जितना ही मान होगा" राजा के उक्त व्यङ्गपूर्ण वचनों को श्रवण कर मुख के आवेश को कृत्रिम हंसी में बदलते हुए सूरि जी ने कहा-इतने दिवस पर्यन्त मैं आपकी अनुमति की ही प्रतीक्षा कर रहा था, आज बिना प्रयत्न मुझे अनुमति मिल गई अतः मैं अब शीघ्र ही अन्यत्र प्रस्थान कर दूंगा। राजा को अपना उक्त अान्तरिकाभिप्राय बतलाकर वीरसूरि शीघ्र ही राज सभा से बिदा हो अपने उपाश्रय में आ गये ।
इधर राजा को अपने मुख से कहे हुए वचनों का रह २ कर पश्चाताप होने लगा। वह सोचने लगा कि-ये अन्य पण्डितों के समान लोभी या मिथ्याभिमान के पूतले नहीं है किन्तु परम निस्पृही महात्मा साधु हैं । मेरे अज्ञानता पूर्ण वचनों की अक्षम्य धृष्टता के कारण रुष्ट हो कर सूरिजी मेरे राज्य को छोड़ कर अन्यत्र चले गये तो अच्छा नहीं होगा अतः राजाने अपने नगर के चारों ओर दरवाजों पर आचार्यश्री को रोकने के लिये योग्य सिपाहियों को बैठा दिये । सूरिजी अपने योग बल से व आकाशगामिनी विद्या की शक्ति से पाटण छोड़ पाली नगर में मारवाड़) चले आये। दूसरे दिन राजा ने सूरिजी की खबर करवाई तो वे नहीं मिले । इधर पाली के ब्राह्मणों द्वारा मय तिथि, वार, नक्षत्र के आचार्यश्री के पाली में पदार्पण करने की सूचना राजा को मिल गई । राजा को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि सूरिजी एक ही दिन में ऐसे कठोर नियन्त्रण से निकल कर पाली जैसे सुदूर मरुधर प्रान्तीय क्षेत्र में कैसे चले गये ? राजा ने अपनी अज्ञानता पर बड़ा
8-अध्यात्म योगतः प्राण निरोधाद् गगना ध्वना । विद्या वलाच्च ते प्रापुः पुरीपल्लीति सज्ञयाः१५
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__ वीरसूरि को सिद्धराज का ताना
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