Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
| ओसवाल सं० ११७८-१२३७
-ramanad
श्रावक होकर शनैः २ सुकृत का पात्र हुआ। एक समय पूर्व जन्मोपार्जित कर्मों के उदय से उसे क्षय रोग हुआ तब उसके कोटम्बिक लोग कहने लगे कि-"अपने स्वधर्म का त्याग कर अन्य धर्म स्वीकार करने से ही इसको क्षय रोग हुआ है।" यह सुन कर व्याधिप्रस्त सागरपोत के धर्म भावना में शंकाशील होने से पूर्वा पेक्षा श्रद्धा में हानि होने लगी। वास्तव में अपने सम्बन्धियों के वचनों की ओर कौन आकर्षित नहीं होता ?
एकदा उत्तरायण पर्व में लिंग-महोत्सव के निमित्त अतिथि, ब्राह्मणों के लिये पुष्कल घृत घट ले जाने में आरहे थे पर असावधानी के कारण बहुत से घृत बिन्दु मार्ग में डाल देने में आये । यह देखकर सागरपोत ने उस धर्म की निदा की जिससे निर्दय ब्राह्मणों ने लकड़ी और मुष्टि प्रहार से उसको मारा । सेवकों ने तो नृशंसतापूर्वक अनेक प्रकार के प्रहारों से आघात शील किया। उसके पश्चात् उस पर दया भाव लाकर अन्य लोगों ने जाने दिया । वहां आर्तध्यान से मृत्यु को प्राप्त होकर सैंकड़ों तिर्यञ्च के भवों में परिभ्रमण कर तू अश्व के रूप में हुआ है। अहो ! अब मेरे पूर्व भव को सुन ।
पूर्व चन्द्रपुर में बोधिबीज (सम्यक्त्वे की प्राप्ति) होने के पश्चात् सातवें भव में मैं श्रीवर्मा नाम का विख्यात राजा हुा । वे भव इस प्रकार जानने चाहिये प्रथम-शिवकेतु दूसरा-सौधर्म देवलोक में तीसरा कुबेरदत्त, चौथा-सनत्कुमार देव में, पांचवां श्रीवज्रकुण्डल में, छट्ठा ब्रह्म देवलोक में सातवां श्रीवर्मा आठवां प्राणत देवलोक में और नवां यह तीर्थकर का भव, इस प्रकार संक्षेप में अपने नव भवों को बतलाये ।
___अब समुद्रदत्त व्यापारिक नगर भृगुपुर से किराने वगैरह की सामग्री लेकर वाहनों से समस्त लक्ष्मी के स्थान रूप चंद्रपुर में आया। वहां के राजा को अमूल्य भेंट देकर संतुष्ट किया । राजाने भी दान सम्मान से संतोष प्रगट किया । पश्चात् राजा की कृपा बढ़ने से और साधु जनों का आदर सत्कार करने से जिनधर्म पर उसका अनुराग बढ़ने लगा और गजा को भी क्रमशः जैनधर्म का बोध हो गया । वहां आये हुए उसके मित्र सागरपोत के साथ भी समान बोध के कारण राजा की मित्रता होगई। अन्त में समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर श्री वर्मा राजा प्रणत देवलोक में महाढिवाला देव हुश्रा । वहां से चवकर वह मैं वर्तमान क्षेत्र में तीर्थकर हुआ हूँ।
इस तरह भगवान् के मुख से कर्म कथा सुन कर राजाने अश्व को छोड़ देने की अनुमति दी और उसने सात दिन का अनशन किया । समाधि से मृत्यु को प्राप्त होकर सहस्र देवलोक में सत्तर सागरोपम की आयुष्यवाला इन्द्र का सामानिक देव हुआ। वहां दिव्य सुख भोगवता हुआ उसने अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का स्मरण किया और भृगुपुर में सादा बारह कोटि स्वर्ण की दृष्टि की । इसके साथ ही राजा और नगर के नागरिकों को जिन धर्म का प्रतिबोध दिलवाया। उसी समय सुकृत शाली ऐसे माहमहीने की पूर्णिमा को स्वर्ण रत्न मय श्रीमुनिसुव्रत स्वामी के चैत्च की स्थापना की माघशुक्ला प्रतिपदा के दिन भगवन् अश्वरत्न को बोध करने आये और उसी मास की शुक्ल अष्टमी को वह अश्व देवलोक में गया ।
इस प्रकार नर्मदा के किनारे पर मृगुकम्छ पत्तन में समस्त तीर्थों में श्रेष्ट ऐसे अश्वाववोध नामका पवित्र तीर्थप्रवर्तमान हुआ । मुनिसुव्रतस्वामी से बारह हजार बारह वर्ष व्यतीत होने पर पद्मचक्रवर्ती ने इसका पुनरुद्धार किया । हरिसेन चक्रवर्ती ने फिर से इस तीर्थका दशवां उद्धार करवाया । इस प्रकार पांच लाख और ग्यारह हजार वर्ष व्यतीत हो गये । ९६ हजार वर्षों में इसके १०० उद्धार हुए । इसके पश्चात् सुदर्शना ने इसका उद्धार करवाया, इसको उत्पत्ति इस प्रकार हैभरोंच में मुनिसुव्रत तीर्थ
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