Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
और कला कौशल सीखने वाले लोग श्रा श्राकर अपनी मनोकामना पूर्ण करते थे उस पट्टन में विक्रम नाम का राजा राज्य करता था और जैसे वह दुश्मनों के लिये विक्रम था वैसे ही गुणीजन सज्जनों का सत्कार और पुरुषार्थियों का उत्साह बढ़ाने के लिये भी सदैव तत्पर रहता था ।
उसी सोपारपट्टन में एक सोमल नाम का रथकार ( सूधार ) रहता था और अपनी कला कौशल में विश्व विख्यात भी था । उसके नये-नये आविष्कार से राजा ने भी संतुष्ट होकर अपने राज में सोमंल को उच्चासन देकर राज्य में उसका अच्छा मान सन्मान बढ़ा रखा था और राज की ओर से उस सुधार को एक सुवर्णपद भी इनायत किया गया था और उसके नित्य नये आविष्कार एवं हस्त कला देख कर प्रजाजन भी उसकी मुक्त कंठ से भूरि भूरि प्रशंसा किया करती थी ।
उस सोमल रथकार के एक देवल नाम का पुत्र था जब वह बड़ा हुआ तो सोमल अपने पुत्र को पढ़ाने के लिये अच्छा प्रबंध किया तथा अपनी शिल्प कलादि विद्या पढ़ाने का भी उस स्वंय ने बहुत कुछ प्रयत्न किया क्योंकि नीति कारों ने भी कहा है कि
"पितृभिस्ताड़िता पुत्रः शिष्यश्च गुरु शिक्षितः । धन हतं सुवर्णं च जायते जन मण्डनम् ||"
अर्थात् पिता पुत्र को, गुरु शिष्य को पढ़ाने के लिये ताड़ना, तर्जना भी करते हैं तब ही जाकर पुत्र एवं शिष्य पढ़कर योग्य बनता है जैसे सोना को पीट पीट कर भूषण बनाते हैं तब ही जाकर वे जनता भूषण बनकर शोभा को प्राप्त होते हैं ।" पर साथ में यह भी कहा है कि "बुद्धि कर्मानुसारिणी" देवल ने पूर्व जन्म में न जाने कैसे कठोर कर्मोपार्जन किये होंगे व ज्ञान की अन्तराय कर्म कैसा बन्धा होगा कि पिता की शिक्षा का थोड़ा भी असर देवल पर नहीं हुआ । यही कारण है की न तो वह पढ़ाई कर सका और न शिल्पकला का विज्ञ ही बन सका । अर्थात् देवल मूर्ख एवं अपठित रह गया और नीतिकार अपठित मनुष्य को पशुओं से भी
सा है अपठित व्यक्ति का कहीं पर सरकार नहीं होता वरन् वह जहां जाता है वहां पर उसका तिरस्कार ही होता है यही हाल सोमल के पुत्र देवल का हुआ ।
उस सोमल के एक दासी थी उसका गुप्त व्यवहार एक ब्राह्मण के साथ हो गया था, कारण कर्मों की गति विचित्र होती है जिसके साथ पूर्व भव में जैसा संबंध बंधा हुआ है उतना तो भोगना ही पड़ता है दासी के ब्राह्मण से एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम ( कोकास ) रखा गया था । जब कोकास बाल्यावस्था का अतिक्रमण किया तत्र तो वह विद्याभ्यास करने लगा पर विद्याग्रहण करने में सबसे पहले विनय भक्ति की श्रावश्यकता रहती है और दास में यह गुण स्वाभाविक ही हुआ करता है कोकास ने अध्यापक के दिल को प्रसन्न कर सर्व विद्या पढ़ ली। साथ में वह अपने मालिक सोमल का भी अच्छा विनय और पूर्ण तौर से भक्ति किया करता था जिससे खुश होकर सोमल ने अपनी जितनी शिल्प कलाएं थी वह सब कोकास को सिखादी जिससे कोकास की ख्याति भी सोमल की तरह सर्वत्र प्रसिद्ध हो गई इतना ही क्यों पर राज में कोकास का वही स्थान बन गया कि जितना सोमल का था कहा भी है किगुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृ वंशो निरर्थकः । वासुदेवं नमस्यन्ति, वसुदेवं न ते जनाः ॥ १ ॥ "
मनुष्य चाहे विद्वान हो, मूर्ख हो, पण्डित हो, समय तो अपना काम करता ही रहता है। कुछ समय के पश्चात् जब सोमल का देहान्त हो गया तो पीछे उसका पुत्र देवल अपठित एवं मूर्ख था यही कारण था कि
१९८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
भारत के अद्भुत चमत्कार -
www.jainelibrary.org