Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १९७८-१२३७
उसके संबंधी एवं राजा मिल कर सोमल के घर का सब भार कोकास के सुपुर्द कर घर का मालिक कोकास को बना दिया। तब जाकर देवल की आंखें खुली और अपने अपठित रहने का पश्चाताप करने लगा पर समय के चले जाने पर परिताप करने से क्या होता है । यह तो सब पूर्व संचित शुभाशुभ कर्मों का ही फल है, कहा है कि
'दासेरोऽपि गृहस्वाम्य मुच्चैः काममावा सतवान् । गृह स्वाम्यऽपि दासेस्य हो, प्राच्य शुभाशुभे ॥"
अब तो कोकास सर्वत्र माननीय बन गया कहा भी है कि "यथा राजा तथा प्रजा" कोकास को [जा की ओर से मान पान मिल जाने से वह संतोष मानकर निश्चित नहीं बैठ गया पर अपने अभ्यास को और भी आगे बढ़ाता गया जिससे प्राप्त हुआ सत्कार की रक्षा एवं वृद्धि भी हो सके । एक समय की बात है कि कोकास के मकान पर दो मुनि भिक्षार्थ श्राये जिनको देखकर कोकास को बड़ा ही हर्ष हुआ, मुनियों को भाव सहित वंदन किया और रसोड़े में ले जाकर निर्वद्य आहार पानी दिया मुनिने धर्मलाभ दिया और वापस लौटने लगे तो कोकास ने धर्म का स्वरूप पूछा । मुनियों ने संक्षिप्त से अहिंसा मय धर्म कहा जिससे कोकास ते निर्णय पूर्वक जैनधर्म स्वीकार कर लिया और मुनियों की सेवा उपासना कर क्रियाकांड से जानकार हो तया तथा जैनधर्म के तत्वों का अच्छा बोधप्राप्त कर लिया ।
उसी समय आवंतीदेश में उज्जैनी नाम की प्रसिद्ध नगरी थी वहां पर बिचारधवल नाम का राजा राज्य करता था । उस राजा के राज में चार रत्न थे वे अपने-अपने काम में इतने चतुर एवं सिद्ध हस्त थे कि जिनकी प्रशंसा सर्वत्र फैल रही थी उन चारों रत्नों के नाम और काम इस प्रकार थे
१ - रसोइया रत्न - रसोइया रत्न ऐसी रसोई बनाता था कि भोजन करने वाले को जितने समय में भूख लगनी चाहिये तो ऐसा भोजन करके जीमाता था कि उसको उतने ही समय में भूख लगे ।
२ - शय्या रत्न - शय्या तैयार करने वाला रत्न शय्यापर सोने वाले को जितनी निन्द्रा लेनी हो तो ऐसी शय्या तैयार करता था कि सोने वाले को उतनी ही निन्द्रा वे पहले नहीं जागे ।
३ - कोष्टागार रत्न -- कोठार बनाने वाला रत्न ऐसा कोठार बनावे कि उसमें रखी जाने वाली वस्तु किसी दूसरे को नहीं मिले किन्तु आप ही जान सके तथा ला सके ।
४ - मर्दन रत्न- मर्दन करने वाल रत्न --- जितना तैल मालिश करके जिस के शरीर में रमा द उतना ही तैल बिना किसी तकलीफ के शरीर से वापिस निकाल दे ।
इन चारों रत्नों के कार्यों पर राजा सदैव खुश रहता था। इन रत्नों की महिमा केवल राजा के में ही नहीं पर बहुत दूर २ तक फैल गई थी। राजा विचारधवल बड़ा ही धर्मात्माराजा था आप का देल हमेशा संसार से विरक्त रहता था उसका वैराग्य यहां तक बढ़ गया था कि कोई योग्य पुरुष मिल जाय तो मैं उसको राज देकर संसार का त्याग कर श्रात्मकल्याण में लग जाऊं पर भोगावली कर्मों की स्थिति पूरी न होने से इच्छा के न होने पर भी संसार में रह कर राज्य चलाना पड़ता था ।
पाटलीपुत्र नगर राजा जयशत्रु ने सुना कि उज्जैन नगरी के राज्य में चार रहन हैं और वे अपने कामों के बड़े भारी विद्वान हैं पर यदि मैं उज्जैनपति से मांगुं तो वे अपने रत्न कैसे दे सकेंगे । अतः मैं चार प्रकार की सेना लेकर उज्जैन नगरी पर धावा बोल दूं और बलात्कार चारों रत्नों को मेरे राज्य में ले आऊं । शत्रु ने ऐसा ही किया और चार प्रकार की सेना लेकर आया और उज्जैननगरी को घेर ली । राजा
राजा के चार रत्न
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