Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७२४ से ७७८ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
वास में उन्होंने जो ज्ञानोपार्जन किया था वह आश्चर्योत्पादक ही था । अस्तु, उक्त विद्वत्ता से प्रभावित हो आचार्यदेव गुप्तसूर ने मुनि चंद्रशेखर को पहिले तो उपाध्याय पद से विभूषित किया और पश्चात् श्रपने पट्ट योग्य समझ सिद्धाचल के पवित्र स्थान पर सूरि पदासीन कर परम्परागतान्नायानुसार आपश्री का नाम भी श्रीसिद्धसूरि रख दिया ।
आचार्यश्री सिद्धसूरिजी एक महान् प्रतापी आचार्य हुए हैं। आप श्रीशत्रुजय से विहार कर सौराष्ट्र, गुर्जर, एव ं लाट प्रान्त में धर्म प्रचार करते हुए भरोंच नगर की और पधार रहे थे । आपका श्रागमन सुन कर श्रीसंघ पहिले से ही स्वागतार्थ सामग्री जुटाने में संलग्न हो गया था अतः भरोंच पत्तन के पास आचार्यश्री का पदार्पण होते ही श्रीसंघने बड़े सानदार जुलूस के साथ आपको बधाया और परमो - साह पूर्वक सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव करवाया । उस समय के साज पूर्ण अलौकिक दृश्य को देख कर विधर्मी भी दांतों तले अंगुली दबाने लगे। इससे जैनधर्म की तो इतनी महिमा और प्रभावना बढ़ी कि उसका वर्णन सतोऽवर्णनीय ही है । जैनेतरों के हृदय में भी इस उत्साह ने कुछ नवीन क्रान्ति पैदा करदी | वे भी जैनियों के वैभव, महात्म्य एवं धर्म प्रेम अनुपम उत्साह को देखकर आश्चर्य सागर में गोते खाने लगे | उनके हृदय में भी जैनधर्म के तत्वों को समझने की नवीन अभिरुचि का प्रादुर्भाव हुआ । इस तरह विधर्मियों को आश्चर्यान्वित करने वाले जुलूस एवं वीरजय ध्वनि के अपूर्व उत्साह के साथ श्राचार्यश्री का समारोह पूर्वक नगर में पदार्पण हुआ । सर्व प्रथम सूरिजी ने संघ के साथ तीर्थकर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी की यात्रा कर माङ्गलिक धर्मोपदेश आगत मण्डली को सुनाया। जनता पर इस देशना का पर्याप्त प्रभाव पड़ा आचार्यश्री ने भी व्याख्यान श्रवण करवा कर वीर वाणी का जनता को लाभ देने का क्रम प्रारम्भ ही रक्खा । भच भारत के प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्रों में से एक था। यहां पर जैनियों की विशाल संख्या वर्त मान थी और प्रायः सब के सब नहीं तो यहां के अधिकांश निवासी वर्ग तो व्यापारी ही थे । इन सब व्यापारियों का व्यापार देश विदेश में बहुत बड़े प्रमाण में चलता था अतः यहां के निवासी प्रायः धनाढ्य ही थे । जैनियों के अलावा इतर जातियां भी व्यापार करने में परम कुशल थी अतः भरोंच का व्यापार क्षेत्र बहुत ही विशाल बन गया था । भरोंच उस समय बड़ा ही समृद्धिशाली, कोट्याधीशों का आश्रय स्थान, प्राकृतिक सौंदर्य में अनुपम, श्रमर पुरी से स्पर्धा करने वाला बड़ा शहर था ।
भरोंच नगर में एक मुकुंद नामक कोट्याधीश, व्यापार कुशल, व्यापारी रहता था । धनधान्यादि की अधिकता के कारण उन्हें पौद्गलिक-सांसारिक सुखों की किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी । वे अपना जीवन परमानन्द पूर्वक व्यतीत कर रहे थे किन्तु एक चिन्ता उनके हृदय में जागृत होकर शत्रुवत् उनके सुख म जीवन को दुःखमय बना रही थी- ऐसा सेठजी के चेहरे से म्पष्ट झलक रहा था । उनका सारा सांसारिक सुख रूप जीवन इस चिन्ता के आगमन या स्मृति के साथ ही विचित्र दुख रूप हो जाता था । सम्पत्ति उन्हें शूल सी चूबने लग जाती । पौलिक मन मोहक पदार्थ फीके मालूम होते । घर दास दासियों से भरा हुआ भी वन वत् भयङ्कर मालूम होता । इस प्रकार यह चिन्ता उनके सांसारिक जीवन में करकट रूप हो गई थी । अक्षय निधि के होने पर भी सन्तति का प्रभाव एवं मृत्यु पुत्रों का होना उन्हें भयंकर दुविधा में डाल रहा था । सांसारिक सम्पूर्ण मनाइलादकारी पदार्थों को पुत्राभाव में उन्हें तरसाते हुए से ज्ञात होते थे । सेठजी ने इस दुःख से विमुक्त होने के लिए जिस किसी पुरुष एवं महात्माने जैसी राय दी उसके अनुसार कार्य
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चन्द्रशेखर को सूरिपद
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