Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १९७८-१२३७
माता पिता कहलाते है अतः आप भी दुःखी एवं दीन प्राणियों को सुखी बनावें अन्याय पूर्वक जनता से कर न ले विना अपराध किसी को दण्ड न दे अपुत्रियों का द्रव्य वगैरह हरण नहीं करें । सर्व साधारण के हितार्थ भव्य मन्दिर बनवावें । तीर्थ यात्रार्थ संघ निकाबें । अमरी पढहा फिरावें जिससे इस भव और परभव में आपका कल्याण हो । राजा ने सूरिजी के हितकारी वचन सुनकर यह प्रतिज्ञा करली की - मैं जान बुक कर किसी पर भी अन्याय नहीं करूंगा । अपुत्रियों का द्रव्य नहीं लूंगा । इस प्रतिज्ञा के साथ ही साथ मन्दिर बनवाने व तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने का भी निश्चय कर लिया ।
श्रीसंघ व राजा के अत्याग्रह से सूरिजी ने वह चातुर्मास सौपारपट्टन में ही कर दिया। इससे राजा की धर्म भावना और भी बढ़ गई । राजाने चौरासी देहरी वाला मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। श्री शत्रुजय यात्रार्थ संघ निकालने के लिये भी तैय्यारियां करना शुरू कर दिया । चातुर्मास समाप्त होते ही राजा जयकेतु के संघपतित्व में संघ ने शत्रुब्जय तीर्थ की यात्रा की । पश्वात् मन्दिर के तैयार होजाने पर जिना लय की प्रतिष्ठा भी सूरिजी से करवाई । श्राचार्य कक्कसूरि महा प्रभावशाली आचार्य हुए। इस प्रकार आपका प्रभाव कई राजाओं पर हुआ । इससे जैन शासन की अधिकाधिक उन्नति एवं प्रभावना हुई ।
एक समय आचार्य कक्क सूरि विहार करते हुए जंगल से पधार रहे थे । मार्ग में उन्हें कई अश्वारूढ़ व्यक्ति मिले । उनके कमरों में तलवारें लटक रही थी। हाथों में तीर कमान थे । एक दो व्यक्तियों ने बन्दूकें भी हाथों में वे रक्खी थी। उनके चेहरे पर भव्याकृति के साथ ही साथ कुछ क्रूरता फलक रही थी । घोड़ों के पीछे २ कई शीघ्र गामी ऊंट भी आरहे थे । क्रमशः वे सवार सूरिजी के नजदीक आ गये तो उनकी क्रूरता से भयभीत हो क्षुद्र वनचर जीव शृगाल, हिरन वगैरह इधर उधर अपने प्राणों की रक्षा लिये लुकते छिपते हुए दौड़ कर रहे थे सूरीश्वरजी हृदय में अश्वारूढ़ सवारों की अज्ञानता व निर्दयता पूर्ण व्यवहारों पर व भगते हुए शृगाल, कुरंगादि वनचर जीवों की प्राण रक्षा निमित्त विशेष दया के अंकुर अंकुरित हो गये । उन्होंने तुरन्त ही आगत अश्वारूढ़ सवारों को उद्देश्य कर कहा - महानुभावों ! ठहरिये । सवारों ने सूरीश्वरजी की और दृष्टि करके कहा- हमें ठहराने का आपका क्या प्रयोजन है ? आप हमें क्या कहना चाहते हैं, शीघ्र कह दीजिये । हमारा शिकार हमारे हाथों से जारहा है अतः किञ्चिमात्र भी विलम्ब मत कीजिये ।
सूरिजी - आपके चेहरे की भव्यता व मुखाकृति की अनुपम सुन्दरता से अनुमान किया जाता है कि श्रवश्य ही आप लोग अच्छे खानदान के हैं । उच्च खानदान व कुलीन घराने के होकर के भी शृगाल, कुरंगादि दयनीय जीवों को मारने रूप जघन्य कार्य को करने के लिये आप लोग कैसे उद्यत हुए हो, समझ में नहीं आता ? देखिये आप लोगों की निर्दयता जन्य क्रूर प्रकृति के कारण ये वनचर प्राणी कितने भय भ्रान्त हो रहे हैं ? श्रापका क्षत्रियोचित कर्तव्य तो यही है कि आप लोग दया करने योग्य इन दीन जोवों पर दया करके इनके रक्षण रूप स्वकर्तव्य का पालन करें। जरा धर्म शास्त्र तत्वों का मनन पूर्वक मन्थन कीजिये, आपको सहज ही ज्ञात होजाय कि निरपराधी जीवों को तो पहुँचाना भी भयंकर पाप है । अभी आप इस प्रकार के कुत्सित कार्य को करके भव में इस का बदला तो इससे भी भयङ्कर रूप में आपको देना पड़ेगा । " कडारा कम्माण न मोक्ख अस्थि " अपने किये - शुभ-सुखरूप, अशुभ- दुक्ख रूप कमों के फल का भोगे बिना कर्मों से छुटकारा नहीं मिलता
सूक्ष्म मारना क्या पर थोड़ा कष्ट आनन्दानुभव करें पर पर
राजा जयकेतु आदि ने जैनधर्म स्वीकार किया
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