Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८ से ८३७ ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जिसको संतोष है वह परम सुखी है जो दुःख है वह पूर्व संचित कर्मों का है जैन है वह उन कर्मों का किसी अवस्था में क्षय करना चाहता है जिसमें भी सम्यग्दृष्टि की अवस्था में कर्मोदय होने में वह भोगवने में बड़े ही
आनंद का अनुभव करता है यदि कर्म उदय में नहीं आकर सत्ता में पड़े हैं तब भी सम्यग्दृष्टि तो उसकी उदि रणा करके उदय में लाकर भोगलेना चाहते हैं । विप्रो ! अभी आप जैनधर्म के तात्विक विषयों को जानते न ही है जब आप जैनधर्म के मर्म को समझ लोगे तब जो आप आज दुःख-दुःख करते हो वह आपको सुख के रूप में दिखाई देने लग जायगा। जिस पदार्थ की मनुष्य तीब्र से तीव्र इच्छा करता है वह उतना ही दूर होता चला जायगा। जब आपके हृदय से तृष्णा निकल जायगी तो उतनी ही नजदीक आनन्द का समुद्र लहरायेगा । इत्यादि । सूरिजी ने बड़ी खूबी से समझाये कि विप्रो के ध्यान में आ गया और उन्होंने काशी जाने के विचार को छोड़ दिया इतना ही क्यों पर उस घातिक करवत को ऐसे समुद्र में डलवा दी कि कुप्रथा को सदैव के लिये मिटा दी। फिर समय पाकर-सूरिजी को साथ में लेकर पुनः श्रीमालनगर में आये
और अपने अपने कुटुम्ब को सूरिजी के पास लाये और सूरिजी ने सबको धर्मोपदेश दिया और उन सबने बड़ी खुशी से जैनधर्म स्वीकार कर लिया और सूरिजी ने भी अपने पास जो वर्द्धमान विद्या से मंत्रित ऋद्धिसिद्धि प्रदायक वासक्षेप था वह देकर सात दुर्व्यसन का त्याग करवा कर उन सबको जैन बना लिये। बस फिर तो था ही क्या सूरिजी के इशारे पर महाजनसंघ के धनाड्य लोगों ने उन २४ विप्रों के कुटुम्बों को अपना कर अपने शामिल मिला लिये उनकी हर तरह से सहायता एवं वाणिज्य व्यापार में साथ जोड़ दिये उसी समय से उनके साथ रोटी बेटी व्यवहार खुले दिल से करने लग गये । बस, उन विप्रों को जो दुःख था वह रात्रि में चोरों की तरह कहां भागा कि जिसका पता ही नहीं लगा अतः उन सबकी जैनधर्म पर हद श्रद्धा हो गई। जैनधर्म की वृद्धि का मुख्य कारण तो उस समय के आचार्यों एवं महाजनसंघ के हृदय की उदारता ही था उन लोगोंकी यही भावना रहती थी कि हम निर्बलों की तन, मन, धन से सहायता कर हमारे बराबरी का भाई बना लें और प्रत्येक कार्य में उनको संघ का एक व्यक्ति समझ कर उसका सत्कार कर उत्साह को बढ़ावें और इस सुविधा से ही अजैन लोग बड़ी खुशी से जैनधर्म स्वीकार कर लेते थे तब ही तो जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी और वे सब तरह से समृद्धिशाली उन्नति के उच्चे शिखर तक पहुँच गये थे। जब महाजनसंघ के साथ उन नूतन जैनों का रोटी बेटी व्यवहार प्रारम्भ हो गया था तब वह व्यवहार कहां तक चला और बाद में किस समय क्या कारण हुआ कि भोजन ब्यवहार रखते हुए भी बेटी व्यव. हार बन्द कर उनको पतन के मार्ग पर अप्रेश्वर बना दिया कि आज वह पतन की चरम सीमा तक पहुंच चुके हैं।
जब भीन्नमाल में २४ ब्राह्मणों ने सकुटुम्ब आत्मघातक जैसा अधर्म छोड़कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया तब शेष ब्राह्मणों से यह सहन कैसे हो सके वे उन ब्राह्मणों की खूब निंदा करने लगे कि हमारी जाति में कैसे नास्तिक जन्मे हैं कि सनातन वैदिक धर्म को छोड़ कर नास्तिक जैनधर्म को स्वीकार कर लिया पर उन्होंने जैन श्रमणों में क्या चमत्कार देखा है कारण वह स्वयं भिक्षा मांग कर अपना गुजारा करते हैं यदि जैनाचार्य में कुछ चमत्कार हो तो वे आम जनता के सामने दिखावे । इत्यादि।
इस पर वल्लभजी वगैरह ने पाकर प्राचार्यश्री को अर्ज की कि पूज्य गुरुदेव ! हम लोगों को तो आप पर पूर्ण विश्वास है पर धर्म द्वेषियों को कोई चमत्कार अवश्य बतलाना चाहिये इस पर सूरिजी ने कहा कि ठीक है तुम कल आम मैदान में उपरा ऊपग ८ पट्ट लगा देना जब मैं श्राकर पट्टे पर बैठकर व्याख्यान
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तृष्णा दुःख का मूल और संतोष ही सुख है
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