Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
२५- ब्राह्मण विध० वैश्य कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न हो यह भंवष्ट जाति कहलाती है । २६ - ब्राह्मण जार से बैश्य कन्या का विवाह हो जिससे प्रजा उत्पन्न वह कुम्हार जाति कहलाती है । इनके अलावा नाई, कायस्थ, पारधी, निषाध, मिना, कहार, धीवर ( कटकार) इत्यादि । अनेक जातियों की उत्पत्ति कही है जिसमें भी औसनर्षि फरमाते हैं कि मैंने जातियों का वर्णन संक्षेप में किया है मगर वे विस्तृत रूप से कहते तो न जाने कितनी जातियों के हाल कह डालते । इसी प्रकार अन्योन्य ऋषियों की जातियां लिखी जायं तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही बन जाय । ग्रंथ बढ़ जाने के भय से स्मृति के मूल श्लोक नहीं लिखे जिज्ञासुओं को स्मृति मंगवा कर पढ़ लेना चाहिये । इस समय मेरे पास मौजूद है ।
नीतिकार फरमाते हैं कि "अति सर्वत्र वर्तयेत् । " कोई भी वस्तु क्यों न हो पर वह अपनी मर्यादा का उलंघन कर जाती है तब अप्रिय लगने लग जाती है और उसका विनाश अनिवार्य बन जाता है जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अन्धकार प्रारम्भ होता है वह क्रमशः अमावस्या तक बढ़ता ही जाता है पर यह अन्धकार की चरम सीमा है । अतः अन्धकार के विनाश के लिए शुक्लपक्ष का आगमन अवश्य होता है । यही हाल संसार का हुआ कि वर्ण गौत्र, जातियों द्वारा संसार का इतना पतन हो गया कि अब इसका उद्धार होना भी अनिवार्य हो गया । हम ऊपर लिख श्राए हैं कि जनता एक ऐसे महापुरुष की प्रतिक्षा कर रही थी कि इस farst को सुधार कर तप्त जनता को शांति प्रदान कर सके ठीक उसी समय जगद्उद्धारक भगवान् महावीर का शांति मय शासन प्रवृत्तमान हुआ ।
भगवान् महावीर ने सब से पहले संसार को परमशांति का उपदेश दिया और संसार के चराचर सर्व प्राणियों को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है । अतः किसी को यह अधिकार नहीं है कि अपने स्वार्थ के लिये किसी जीव को दुःख पहुँचावे अतः इस उपदेश का सबसे पहले प्रभाव यज्ञयगादि पर इस प्रकार हुआ कि पहले ही दिन के उपदेश से इन्द्रभूति आदि एकादश यज्ञाध्यक्ष तथा उनके ४४०० साथियों ने भगवान् महावीर के पास श्रमरण दीक्षा स्वीकार करली फिर तो कहना ही क्या था लाखों निरपराध मूक प्राणियों को अभयदान मिला इतना ही क्यों पर प्रायः सर्वत्र इस घृणित कार्य से जनता को नफरत होने लगी इधर भगवान्ने वर्ण, गौत्र और जातियों के ऊंच नीच रूपी जहरीले भेद भाव को मिटाकर सबको सदाचारी एवं समभावी बनाते हुए कहा कि जीवात्मा कोई ऊंच नीच नहीं है पूर्व संचित कर्मों से ही वे अपने किए कर्मों द्वारा सुख दुःख का अनुभव करते हैं । श्रतः मनुष्य को कर्म करने में ही सावधानी रखनी चाहिए इत्यादि भगवान् के उपदेश का प्रभाव केवल साधारण जनता पर ही नहीं वरन् बड़े बड़े राजा महाराजाओं और खास कर ब्राह्मणों पर भी हुआ। और वे पापवृत्तियों को छोड़कर भगवान् महावीर के शांतिनय झंडे के नीचे लाकर शान्ति का श्वास लेने में भाग्यशाली बने । जिसमें शिशुनागवंशी, सम्राट् बिंबसार, श्रजातशत्रु राजाबेन, चण्डप्रयोतन, उदाई, चटेक, संतानिक, दधीबाहन, काशी कौशल के अठारह गण राज, मल्लवी, लच्छवी, वंश के नृपति गण और भूपति प्रदेशी आदि भूपाल थे । 'यथाराजास्तथाप्रजा' इस युक्ति अनुसार जब राजा महाराजा भगवान् महवीर के उपासक बन गये तब साधारण प्रजा तो पहले से ही शांति के लिये उत्सुक थी । भगवान् महावीर धराध के लिए क्या ब्राह्मण, क्या शुद्र, क्या क्षत्री, क्या वैश्य सबके लिए धर्म के दरवाजे खोल दिये । सम्राद् बिंबसार व राजाबेन ने वर्ण व्यवस्था तोड़ दी और वर्णान्तर विवाह करना शुरु कर दिया । राजा श्रेणिक ने स्वयं एक वैश्य कन्या के साथ विवाह किया तथा उन्होंने अपनी एक पुत्री सेठ धन्ना को और दूसरी
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भगवान् का शासन
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