Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ औसवाल सं० १७१८-१२३७
भेदित हो गये हैं- ऐसे दुःखी नारकी के जीवों को होते हैं।
छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्त परशोस्तीक्ष्णेन धारासिना । क्रन्दन्तो विषवीचिभिः परिवृत्ताः सम्भक्षण व्यावृत्तः ।। पाट्यन्ते क्रकचेन दारुवदसिन प्रच्छन्न बाहुद्वभा ।
कुम्भीषु त्रपुपान दग्ध तनवो भूषासु चान्तर्गताः ॥ अर्थात्-गरीब बेचारे नारकी के जीव भयंकर कुल्हाड़ियों से छेदे जाते हैं । तीक्षणधार वाली तलवारों को देखकर बूम मारते हैं-चिल्लाते हैं । खाजाने के लिये उद्यत बने हुए सौ से आक्रान्त करते हैं। दोनों हाथ ढका गये हों वैसे लकड़े के मुआफ्रिक करवत से काटे जाते हैं। कुम्भी तथा सोना वगैरह गलाने की कुलड़ी में गरम किये हुए सीसे के रस को रह २ कर पीलाने से नरक के जीवों का शरीर जला हुआ होता है।
इसके सिवाय विष्णु पुराण में नरक में विषय में उल्लेख करते हुए लिखा है- कि "नरके यानि दुःखानि पाप हेतुभवानि वै। प्राप्यन्ते नारकैविप्र! तेपी संख्या न विद्यते ॥"
अर्थात् -- हे ब्राह्मण ! नरक में पाप की अधिकता के कारण उत्पन्न हुए नरक के जीवों को जो दुःख प्राप्त होते हैं उसकी संख्या नहीं कही जा सकती है ।
सूरीश्वरजी के उक्त हृदय भेदी मामक शब्दों के उपदेश ने उनके हृदय पर पर्याप्त प्रभाव डाला। उनके मानस क्षेत्र में सत्वर दया के अंकुर अंकुरित हो गये। वे लोग आचार्यश्री की विद्वत्ता एवं समझाने को अपूर्व शैली की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। कुछ क्षणों के मौन के पश्चात उन सवारों के मुख्य पुरुष ने कृतज्ञता पूर्ण शब्दों में कहा-महात्मन् ! आपने हमारे ऊपर बड़ा ही उपकार किया है। हम लोगों ने अज्ञानता से अज्ञानियों के बताये हुए दुर्गति प्रदायक मार्ग को पकड़ रक्खा था पर आपने आज हमारे ऊपर अपरिमित कृपा करके हमको चारुपथ के पथिक बना दिये हैं। इस प्रकार मुख्य पुरुषों के शब्दों के समाप्त होते ही पास में बैठे हुए एक सैनिक सवार ने कहा-महात्मन् ! आप माण्डव्यपुर के नरेश महाबली हैं। इस प्रकार पारस्परिक परिचय की घनिष्टता होने पर माण्डव्यपुर के राजा महाबली आचार्य श्री को साथ में लेकर अपने नगर में आये। वहां के श्रीसंघ ने भी सूरीश्वरजी का समारोह पूर्वक स्वागत किया। सूरीश्वरजी ने भी उन लोगों पर स्थायी प्रभाव डालने के लिये अपना व्याख्यान क्रम यथावत् प्रारम्भ रक्खा।
राजा महाबली वगैरह क्षत्रिय सैनिक वर्ग भी आचार्यश्री के व्याख्यान का लाभ हमेशा लेने लग गये। क्रमशः जैनधर्म के सम्पूर्ण तत्वों को सूक्ष्मता पूर्वक समम कर के राजा वगैरह क्षत्रियों ने मिथ्यात्व का त्याग कर आचार्यश्री के पास में शुद्ध पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर लिया।
माण्डव्यपुर नरेश श्रीमहाबली के मन्त्री, डिडू गौत्रीय शा-उदा ने सूरिजी से अर्ज की-गुरुदेव ! आपने राजा को जैन धर्मानुयायी बनाकर हम लोगों पर बड़ा ही उपकार किया। इसका वर्णन हम लोग अपनी तुच्छ जबान से करने में सर्वथा असमर्थ हैं किन्तु एक चातुर्मास आप यहीं पर करने की कृपा करेंगे तो राजा वगैरह नये बने हुए जैनियों की श्रद्धा भी जैनधर्म में दृढ़-अमिट हो जावेगी। इतना ही क्या पर राजा के पुत्रादि भी जैनधर्म को स्वीकार कर जैनधर्म के विस्तृत प्रचार में विशेष सहायक बनेंगे। सरिजी का उपदेश
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