Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन j
[ ओसवाल सं० १९७८-१२३७
नरेश ने चार वेदों का निर्माण किया । जिनकेनाम १ संसारदर्शनवेद, २ संस्थापनपरामर्शवेद ३ तत्वावबांध और ४ विद्याप्रबोध । इन चारों वेदों को वृद्ध एवं अनुभवी श्रावकों को दे दिया और यह भी कह दिया कि मैं जब राजकार्य में लगा रहता हूँ तब मेरे मकानके द्वार पर बैठ कर ये वेद मुझे सुनाया करो, जिससे भगवान ऋषभदेव के उपदेश का असर मेरे ऊपर होता रहे और इनके अलावा जितना समय मिले उसमें आम जनता में इन वेदों के उपदेशों का प्रचार किया करो । भगवान् ऋषभदेव के उपदेश रूपी ज्ञान वेदों द्वारा वृद्ध श्रावक सुनाने लगे। इस गर्ज से भरतराजा उनका आदर सत्कार एवं पूजा बहुमान करने लगे । 'यथाराजा स्तथा प्रजा' जो कार्य राजा करता है उसका अनुकरण रूप में प्रजा भी किया करती है । कारण एक तो वे वृद्ध श्रावक पहले से ही पूजन कि । दूसरा भगवान् ऋषभदेव के उपदेश को सुनावे इससे तो विशेष पूजनिक बन गये । इन उपदेशक श्रावकों की पहचान के लिये चक्रवर्ती भरतने कंकनीरत्न से उनके हृदयपटल पर तीन लकीर खेंच दीकि
भरत नरेश के रसोड़े में भोजन करले और उन वृद्ध श्रावकों को दूसरी भी कोई भी आवश्यकता होतो राजाके खजाने से द्रव्य ले आया करे । इस प्रकार भरत राजा की शुभ योजना से जनता में धर्म प्रचार एवं आत्म कल्याण की भावना उत्तरोत्तर वृद्धि पाने लगी और वृद्ध श्रावकों की प्रतिष्ठा भी वढ़ने लगी इतना ही क्यों पर उन वृद्ध श्रावकों का नाम 'महाण' भी होगया जो उनके महाण महारण उपदेश का ही द्योतक था ।
उसके पास कंकनीरत्न न होने से उसने उन महारणों को (रूपा) की और कई एक ने सूत की दी । अतः महाण
भरतराजा के बाद दंडवीर्य राजा हुआ । सुवर्ण की जनेऊ दी बाद में कई राजाओं ने रजत अपनी पहचान के लिए जनेऊ अवश्य रखते थे ।
इस प्रकार असंख्य काल तक उन महाणों प्रभाव से
इधर
अपना नाम ब्राह्मण रख कर
द्वारा जनता का महान् उपकार हुआ पर काल के बुरे तो भ० सुबुद्धिनाथ का शासन विच्छेद हो गया और ऊधर उन महाणों के मगज में स्वार्थ का कीड़ा घुसा। उन्होंने वेदों के उपदेशों में रद्दोबदल करना शुरू कर दिया । परामर्थ के स्थान में स्वार्थ का राज्य स्थापित कर दिया । यहाँ तक कि आप अपने को ब्रह्म का रूप कहलाकर जगत् के गुरू होने का दावा करने लग गये । भगवान् ऋषभदेव ने उग्र भोग राजन कुल के अलावा सब संसारको क्षत्रिय कुल में स्थापन किया था जिसमें नीच ऊंच एवं हलके भारी की थोड़ी सी भावना नहीं रखी थी। पर ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के वश किसी को ऊंचा और किसी को नीचा बना कर ऐसे जहरीले बीज बो दिये कि संसार क्लेश का झोंपड़ा बन गया । विधि विधान एवं अनेक क्रिया कांड रच कर जनता को अपने पैरों के तले दबा रखी थी जिसके फल स्वरूप उन भूदेवों के सामने कोई चूं तक भी नहीं कर सके । कारण राज्यसत्ता एवं अप्रगण्य नेतातो उनके बाएं हाथ की कठपुतलियों बन चुकी थी। इस प्रकारउन स्वार्थ प्रिय ब्राह्मणोंने संसारभर में त्राहि त्राहि मचा दी। पर जब दशवें भगवान् शीतलनाथ के शासनका उदय हुआ तब उन स्वार्थी ब्राह्मणों की पोल खुलने लगी। इतना ही क्यों पर, उनके खिलाफ में एक पार्टी ऐसी खड़ी होगई कि वह प्रायः ब्राह्मणों के स्वार्थ का हमेशा विरोध करती थी । पर, प्रकृति उनके अनुकूल नहीं थी। भगवान शीतलनाथ का शासन भी कुछ समय चल कर विच्छेद होता गया और ब्राह्मणों की अनुचित सत्ता प्रबल वडती गई । सर्वत्र दुनियां में त्राहि त्राहि मच गई चित्कार कारुणनाद सर्वत्र सुनाई देने लगा । ऊंच नीचके भेद भाव की सर्वत्र भट्टियां धधकने लगी इत्यादि । खैर कैसी भी परिस्थिति क्योंन हो अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाती है तब उनका उद्धार होना भी अनिवार्य होजाता है । जैसे अन्धकार में प्रतिपदा से अमावस्या आजाती है, फिर तो
जहर
भारत नरेश द्वारा चार वेदों का निर्माण
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