Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८ -८३० ]
भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बार गर्जना करके देख लेवें । शिशु सिंह के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर भी वृद्ध सिंह की गर्जना करने की या सज्जा का सामना करने की हिम्मत नहीं हुई पर, बच्चे श्रत्याग्रह से वृद्ध शेर हाथल पटक सिंहोचित गर्जन शुरु किया । विचारा धोबी नयी आफत आ जाने से घबरा गया। कपड़े सब ही गिर गये वृद्ध सिंह ने अपना असली स्वरूप पहिचानने में उस बच्चे का उपकार और अहसान माना । और धोबी के पब्जे में से छूट कर निडरता पूर्वक पहाड़ों की कंदरा में स्वतन्त्र होकर विचरने लगा !
सूरिजी के उदाहरण ने तो मुनियों के हृदय पर गहरी छाप डाली । आगत श्रमण मण्डली में नवीन चैतन्य स्फुरति होने लगी । धर्म प्रचार का पूर्वोत्साह जागृत हो गया। वे समझ गये कि हम सच्चे शेर ही हैं पर प्रमाद रूपी धोबी ने हमारे मानस में व्यर्थ ही संशय भर दिया है। परिषहों के भय से हम कायर एवं अकर्मण्य बने बैठे हैं । श्रमण जीवन रूप सिहत्व की पवित्र पराक्रमशील रूप अवस्था को प्राप्त करके भी दुनियां भरके शिथिलता रूप मैल को हमने सिर पर लाद रक्खा है। आचार्यश्री कक्कसूरि जी म. यद्यपि लघु श्राचार्य हैं पर शेर के बच्चे की तरह अपने को हाथल पटक कर गर्जना करने की सलाह दे रहे हैं। अपने को सत्कर्तव्य का भान करवा रहे हैं। श्रमण जीवन की पवित्रता जिम्मेवारियों की र अपने को श्रभिमुख कर जीवन के वास्तविक ध्येय की एवं गृह त्याग के कर्तव्य की अपने को स्मृति करवा रहे हैं । वास्तव में आचार्यश्री के कथनानुसार व मुनिवृत्ति के पवित्र आचारविचारानुसार हम हमारे जीवन में आचार विचार विषयक विचित्र परिवर्तन न किया तो निश्चत ही हम शासन द्रोही ए विश्वासघाती नाम से निर्दिष्ट किये जावेंगे । शनैः २ संसार में अन्यधर्मियों के साधु के समान हमारी भ कीमत नहीं रहेगी । अतः हमारे पवित्र जीवन का हमें ही खयाल करना चाहिये। आचार्यश्री के उपदेश श्रागत श्रमण मण्डली की भावनाओं में इतना विचित्र परिवर्तन कर दिया कि एक बार वे पुनः धर्म प्रचार के के लिये कमर कसकर तैय्यार हो गये ।
आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने जहां २ शिथिलता देखी वहां २ इस प्रकार की श्रमण सभाएं करवाक श्रमण जीवन में नवीन शक्ति का सञ्चार करने का आशातीत प्रयत्न किया । मुनियों को प्रोत्साहित कर उनके कर्तव्य का भान करवाया । धर्म प्रचार की ओर उन्हें प्रेरित कर शासन का गौरव बढ़ाया । यद्यपि उस समय का चैत्यवास सर्वत्र विस्तृत होगया था और दुष्कालादि की भयंकर भयङ्करता ने उनके आचार विचारों स्वाभाविक शिथिलता लादी थी तथापि सूरिजी के प्रयत्न ने इस विषय में बहुत कुछ सफलता प्राप्त की वर्षों से शिथिलता के कीचड़ में फंसे हुए श्रमणों का एक दम रुक जाना या उनमें आचार विचार की दृढ़त रूप निर्मलता श्राजाना असम्भव नहीं तो दुष्कर तो अवश्य ही था पर सूरिजी का प्रयत्न सर्वथा निष्फल नई हुआ। उन्हें बहुत अंशो में सफलता हस्तगत हुई और तदनुसार मुनिगण भी अपने कर्तव्य की ओर असर हुए यह ध्यान रखने की बात है कि उस समय के सब ही चैत्यवासी शिथिल नहीं थे पर उनमें बहुत सुविहित, क्रियापात्र, उपविहारी, तपस्त्री एवं ज्ञानी भी थे। जो शिथिलाचारी थे उनमें भी ऐसे कई असा धारण गुण विद्यमान थे कि उक्त गुणों से समाज पर उनकी अच्छी सत्ता एवं द्वाप थी । समाज उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति गौरव व मान था । वे शासन की लघुता को अपनी आंखों से नहीं देख सकते थे । यही कारण था कि शिथिलता के शिकारी होने पर भी जैनधर्म के गौरव जग जहार करने के लिये उन चैत्यवासियों ने जो २ कार्य किये वे श्राज क्रिया उद्धारकों से एवं आचार विचार की पवित्रता का दम भरने वाले
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चैत्यवासियों में भी उग्र विहारी
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