Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७२४-७७८ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
लगादी तो निश्चय ही हमारे लिये देवताओं के भोग किंवा मोक्ष का अक्षय सुख तैयार है किन्तु इसके विपरीत भविष्य का विचार न करके थोड़े से सुखों के लिये बहुत की हानि की तो मधुलिप्त खड़ग को चाटने वाले जिह्वालोलुपी की जिह्वा कटने के दुःख के समान हमको भी अनन्त नरक, तिर्यश्च, निगोद के दुःखों को सहन करना पड़ेगा जहां से कि अपना पुनरुद्धार होना असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य ही हो जायगा। शास्त्रों में कहा है
सल्लं कामा विसंकामा कामा आसी विसोवमा । कामे य पत्थेमाणा अकामा जन्ति दुग्गई ॥ जहा किम्पाग फलाणं परिणामो न सुंदरो । एवं भुताण भोगाणं परिणामो न सुंदरों ॥
अर्थात्-ये काम भोग शल्य-कंटक स्वरूप हैं। साक्षात् विष से भी भयंकर है श्राशीविष सर्प से भी उप एवं हानिप्रद हैं। यह जीव इन पौदलगिक सुखों में मोहित हो उनकी प्राप्ति के प्रयत्न करता रहता है और काम भोग को भोगने की तीव्र इच्छा वाला होकर के भी अन्तराय कर्म के तीब्रोदय से वैसा नहीं करता हुआ इच्छा से ही दुर्गति को प्राप्त हो जाता है। कहां तक कहें । इन काम भोगों की शास्त्रकारों ने किम्पा. कफल की उपमा दी है जैसे किम्पाक फल खाने में अत्यन्त स्वादु एवं मन को श्रानन्द उपजाने वाला होता है किन्तु कुछ ही क्षणों के पश्चात् वह श्रानन्द मृत्यु के ही रूप में परिणत हो जाता है उसी तरह ये काम भोग भी भोगते हुए कुछ क्षणों के लिये सुखप्रद अवश्य हैं । ये कामभोग तो हमारे बाह्यशत्रुओं को अपेक्षा भी अधिक हानि पहुँचाने वाले शत्र हैं। कारण अपना प्रतिपक्षी-द्वेषी, सिंह, हाथी, सर्प वगैरह तो शत्रुता के आवेश में आकार अधिक से अधिक एक भव के नाशवान शरीर का ही नाश कर सकते हैं किन्तु ये कामभोग भव भव के आत्मिक गुणों का एक क्षण में ही विनाश कर देते हैं। अतः किञ्चित्काल के क्षणिक विष संयुक्तभोगों को भोगकर चिरकाल के दुःखों को मोल लेना-"खणमात सुक्खा बहुकाल दुक्खा" कहां की समझदारी है ! अत: आप भी दृढ़ता पूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत की आराधना करें इसी में श्रात्मा का कल्याण है ।
पत्नी-जब मनुष्य के सामने खाने योग्य पदार्थ रहते हैं तब वह कदाचित किन्हीं कठोर प्रतिबन्धों के कारण न भी खाता हो किन्तु उसकी इच्छा तो सदा खाने की रहती है अतः उस पदार्थ से सदैव दूर रहना ही अच्छा है जिससे कभी अभिलाषा जन्य पाप के भागी तो न हो सकें।
करण-तो क्या आपकी इच्छा उस पदार्थ से सदैव के लिये दूर रहने की है ! यदि ऐसा ही है तो एक बार पुनः दृढ़ निश्चय कर लें।
पत्नी-अन्य तो उपाय हो क्या है। ___ करण-यदि ऐसा ही है तो बड़ी खुशी की बात है कि श्राप और हम एक पथ के पथिक बनकर आत्मकल्याण के परमसौभाग्य को प्राप्त करेंगे।
___ बस, उन पवित्र आत्माओं ने रात्रि में आपस में वार्तालाप से ही दृढ़ निश्चय कर लिया कि, समय आने पर अपन दोनों एक साथ में दीक्षा ग्रहण कर निवृत्ति मार्ग के अनुसा बनेंगे । समय की प्रतीक्षा में दोनों, विजयकुवर, विजयकुवरी के समान एक शैय्या पर सोते हुए भी अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत को पालन करने लगे।
इधरसंयोगप्रबल पुण्योदय से जाल्युद्धारक, जिनगदित यम नियम निष्ठ,शासनदीपक,जंगम तीर्थ स्वरुप, धर्मप्राण आवार्यदेवगुप्तसूरि का उपकेशपुर में पदार्पण हुश्रा । पूर्व प्रकरण से पाठकों को अच्छी तरह से १११२
दम्पति का दीक्षा लेने का निश्चय
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