Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० ११२४-११७८
विदित ही है कि आचार्यश्री बाल ब्रह्मचारी, तेजस्त्री — तपस्वी थे अतः आप अपने व्याख्यान में ब्रह्मचर्य की महत्ता का विशेष वर्णन करते थे । एक दिन प्रसङ्गानुसार श्रापने फरमाया कि
देव दाव गंधव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा । बंभयारी नमसंति, दुकरं जे करेन्ति ने ॥
अर्थात् — जो निष्ठ अखण्ड ब्रह्मचर्य पालते हैं उनको देवता, दानव, गन्धर्व यक्ष, भूत पिशाच, राक्षस किन्नरादि देव भी नमस्कार करते हैं । उन महा पुरुषों की सेवा करने में वे अपने आपको, भाग्यशाली समझते हैं । श्रतः ब्रह्मचर्य में किसी भी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं होने देने के लिये किंवा निरतिचार ब्रह्मचर्य व्रत को पालन करने के लिये श्रमण जीवन ही उत्तम साधन है। इसके बिना शुद्ध ब्रह्मचर्य पालना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है कारण, मन की दुर्बलता से कभी न कभी अपनी प्रतिज्ञा में भांगा लगने की संभावना रहती है | आचार्यश्री के उक्त व्याख्यान को करण और करण की पत्नी ने ध्यान पूर्वक सुना । व्याख्यानानंतर अपने मकान पर आकर माता पिता (सासू, श्वसुर ) से दोनों जने दीक्षा के लिये एक साथ अक्षा मांगने लगे । वे कहने लगे कि हम जल्दी ही आचार्यदेव के पास में दीक्षित होना चाहते हैं अतः कृपा कर श्राप अविलम्ब आज्ञा प्रदान करें ।
उदाहरण
सेठ अर्जुन और आपकी पत्नी फागु को यह मालूम नहीं था कि पुत्र और पुत्र वधु दोनों आजपर्यन्त बालब्रह्मचारी हैं । अत उन्होंने करण को घर में रखने के लिये खूब प्रपथ्व एवं प्रयत्न किया पर जब इस बात की खबर पड़ी कि करण और करण की पत्नी अखण्ड ब्रह्मचारी हैं और दोनों ही दीक्षा के इच्छुक हैं तो उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा शनैः २ यह बात नगर वासियों के कानों तक पहुँची तो सब ही उक्त से विजयकुंवर विजयकुळवरी को स्मृति करने लगे । सब नगर निवासी उनके आदर्श त्याग की प्रशंसा करने लगे और कोटिशः धन्यवाद देने लगे । नगर में थोड़े समय के लिये इस विषय की बड़ी भारी क्रान्ति मच गई । विषयाभिलाषियों को भी विषयों से वैराग्य होने लगा । इधर सूरिजी महाराज के त्यागमय उपदेश ने जनता पर इतना प्रभाव डाला कि १३ पुरुष और १८ महिलाएं दीक्षा के लिये और तैयार हो गये । शा. अर्जुन ने सात लक्ष द्रव्य व्ययकर दीक्षा का महोत्सव किया और सूरिजी ने करण और शेष उम्मेदवारों को शुभमुहूर्त और स्थिरलग्न में भगवती दीक्षा देदी। करण का नाम मुनि चन्द्रशेखर रख दिया । वर्तमान काल में प्रकृतितः मनुष्य पाप के कार्यों की देखा देखी करते हैं वैसे पूर्व जमाने में धर्म के कार्य की देखादेखी भी करते थे । इसका ज्वलत उदाहरण आप हर एक श्राचार्य के जीवन में पढ़ते ही श्रा रहे हैं । वास्तव में उस समय के जीव ही लघुकर्मी और धार्मिक होते थे । उनके लिये मोक्ष बहुत ही नजदीक था अतः उनका सारा ही जीवन सीधा सादा, सरल एवं सांसारिक स्पृहा रहित था । जैसे मनुष्यों को मरने में देर नहीं लगती है वैसे उन लोगों को घर छोड़ने में भी देर नहीं लगती थी । वे लोग तो अपने जीवन का ध्येय आत्म कल्याण ही समझते थे ।
मुनि चन्द्रशेखर बड़े ही प्रज्ञावान् थे । शायद उन्होंने पूर्व जन्म में ज्ञान पद की बहुत ही श्राराधना एवं ज्ञान दान की परम उदारता की होगी । यही कारण था कि, अन्य साधुओं की अपेक्षा आप हर एक विषय का शीघ्र ही पाठ कर लेते । अभ्यासक्रम की उक्त विलक्षणता ने उन्हें अल्प समय में ही एकादशांगी तथा उपांगादि शास्त्रों के विचक्षण ज्ञाता बना दिये । शास्त्रीय पाण्डित्य के साथ ही साथ तत्समयोपयोगी न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्दादि शास्त्रों में भी असाधारण विद्वत्ता प्राप्त कर । १४ वर्ष के गुरुकुल
सूरीश्ववरजी ने ब्रह्मचर्य का व्याख्यान
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