Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसूरी का जीवन ]
[ओसवाल सं० १०६०-१०८०
हुए हैं। किसी ने अपने गृहण किये हुए धर्म को धर्म माना है तो किसी ने किसी दूसरे को । यह सब ठीक नहीं क्योंकि इन सबों को स्वीकार करते हुए श्रात्मीय हिताहित का पूर्ण एवं सुक्ष्म विचार नहीं करते हैं। धर्म के मुख्य लक्षणों में अहिंसा का सर्वप्रथम एव सर्वोत्कृष्ट स्थान होना चाहिये । धर्म के नाम पर हिंसा विधायक विधानों का विधान कर उनसे स्वर्ग प्राप्ति की आशा रखना सत्य से नितान्त पराङ मुख होना है । धर्म-धर्म है उसे अधर्म का रूप देकर धर्म मानना निरी अज्ञानता है। धर्म सुखमय एवं मङ्गलमय है । अतः धर्म के नाम पर असंख्य मूक प्राणियों का खन करके उसे सद्धर्म का अङ्ग मानना कहां तक युक्ति युक्त है ? बुद्धिमान मनुष्य स्थिर चित्त से विचार करें कि यह धर्म है या अधर्म है । जब अपने शरीर में एक कटक भी प्रविष्ट हो जाता है तो असह्य पीड़ा का अनुभव होने लगता है फिर उन मूक प्राणियों को जीवन से पृथक कर धर्म का ढ़ोंग मचाना साक्षात् अन्याय है महानभावों । सद्धर्म को स्वीकार करो इससे ही सर्वत्र जय है । दुनियां में जो इतनी विचित्रताएं दृष्टिगोचर होती है वे सब धर्म एवं अधर्म के आधार पर ही स्थित है। रंक का राजा और राजा का रंक होना तो दुनियां में चला ही पाया है पर किसी भी अवस्था में क्यों न हो परन्तु कृतकर्म का वदला चुकाना तो सबके लिये आवश्यक ही होता है । अत बुद्धिमानों को चाहिये कि धर्म के तत्वों का ठीक २ निर्णयकर उसका ही उपासक बने ।
इस तरह सूरिजी ने जैन दर्शन के विशिष्ट तत्व को अन्यान्य दर्शनों के साथ तुलना करते हुए निर्भीकता पूर्वक मार्मिक शब्दों में समझाया कि श्रोतागण एक दम स्तब्ध रहगये । रावगेंदा तो सीधे सादे सरल स्वभावी धर्म के तत्वों को जिज्ञासा दृष्टि से निर्णय करने के इच्छुक थे। उनकी अन्तरात्मा पर सूरीश्वरजी के व्याख्यान का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । ऐसे तो वे हिंसा-जीव वध से पहले से ही घृणा करते थे किन्तु हिंसकों के संसर्ग से कभी २ अनुचित प्रवृत्ति भी हो जाया करती थी । कारण
"काजल की कोठरी मां कैसो हु सयानो जाय, काजल की एकलीक लागी है पे लागी है ॥" ____ अाज आचार्य देव के प्राभावोत्पादक वक्तत्व से उनके हृदय में पुनः हिंसा के विरुद्ध नवीन आंदोलन मचाया। उनकी अन्तरात्मा ने उन्हें आचार्य देव व परमात्मा की साक्षी पूर्वक निरपराध प्राणियों के वध की शपथ करने के लिये प्रेरित किया। वे समझने लग गये कि-जिन जीवों की शिकार करके हम मांस भक्षण करते हैं उनका इसी तरह से या उससे भी ज्यादा बुरीतरह से बदला देकर मुक्त होना पड़ेगा । अतः इस तरह की इसमव परभव में यातना सहने के बदले एतद्विषयक शपथ कर लेना ही उभय लोक के लिये श्रेयस्कर है । बस, उक्त विचारों के निश्चित निश्चयानुसार उन्होंने सभा में खड़े होकर कहा-महात्मन ! श्राज मैं ईश्वर की साक्षी पूर्वक आप सबके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरी अवशिष्ट जिन्दगी में न तो शिकार खेलूगा और न मांस मदिरा का भक्षण ही करूंगा। रावजी की उक्त प्रतिज्ञा को सुन सूरिजी ही नहीं अपितु आगत सकल श्रोतागण एक दम चकित हो गये । सब लोग रावजी के इस कर्तव्य के लिये उन्हें धन्यवाद देने लगे। विशेष में सूरिजी ने उनके उत्साह को बढ़ते हुए कहा-रावजी ! आप बड़े ही भाग्यशाली हो । यह अहिंसा धर्म तो आपके पूर्वजों का ही है। जब तक क्षत्रियवर्ग अहिंसा के उपासक एवं प्रचारक रहे वहां तक जनसमाज में अपर्व शांति का अखण्ड साम्राज्य रहा। पर कुसंग के बुरे असर ने जीवों के रक्षक क्षात्रियों को जीव भक्षक बना दिये । संसार के पतन का श्रीगणेश भी इसी तरह के हिंसा जन्य पाप से होने लगा मैं तो चाहता हूँ कि क्षत्रियवर्ग आज भी अपनी पूर्व स्थिति को, तीर्थकर प्रणीत
पूरीश्ववरजी के व्याख्यान का प्रभाव
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