Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १०८०-११२४
है कि जिसकी श्राराधना एवं उपासना से इस लोक और परलोक में जीव को सुख शान्ति एवं आनंद मिलता है । नीति कारों का कथन है कि
वस्तु
चला लक्ष्मीवलाः प्राणाश्चले जीवित मन्दिरे । चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ॥ है | प्राण, जीवन और घर भी अस्थिर है । इस विनश्वर एवं क्षणभंगुर
संसार में धर्म ही एक निश्चल है । धर्मः शर्म पर वह च नृणां धर्मोन्धकारे रविः । सर्वापत्तिशमक्षमः सुमनसां धर्माभिधानोनिधिः ॥
धर्मो बन्धुबान्धवः पृथुपथे धर्मः सुहन्निवलः । संसारोरुमरूस्थले सुरतरुर्नास्त्येव धर्मात्परः || मनुष्यों को धर्म ही इस लोक और परलोक में ( उभयलोक में ) सुख देने वाला है । धर्म ही अज्ञानान्धकार के लिये सूर्य के समान है । धर्म नामक वृहन्निधि सज्जनों की सर्व आपत्तियों को शमन करने में समर्थ है धर्म ही दीर्घ अरण्यमय मार्ग में बन्धुरूप है और धर्म ही निश्चल मित्र है । संसार रूपी मारवाड़ की भूमि के लिये धर्म के सिवाय अन्य कोई कल्पवृक्ष नहीं । धर्म ही कल्पवृक्ष है
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धर्मो दुःख दवानलस्य जलदः सौख्येक चिन्तामणिः । धर्मं शोक महोरगस्य गरुडो धर्मो विपत्त्रायकः । धर्मः प्रौढ़ पदप्रदर्शन पटुर्धर्मोऽद्वितीयः सख्य । धर्मो जन्मजरा भृतिक्षय करो, धर्मो हि मोक्ष प्रदः ।
अर्थात- धर्म ही दुःख रूप दावानल को शान्त करने में मेघ के समान है । धर्म प्राणियों को सुख देने में चिन्तामणि रत्न के समान है । धर्म शोक रूप महासर्प के लिये गरुड़ के समान है । धर्म विपत्ति से रक्षण करने वाला अर्थात् विपत्ति का नाश करने वाला है । धर्म उच्च स्थान को दिखलाने में कुशल है । धर्म श्रद्वितीय मित्र समान है । धर्म जन्म, जरा और मृत्यु को क्षय करने वाला है तथा धर्म ही मोक्ष को देने वाला है । अस्तु,
राजन् ! धर्म की शरण ही उत्तम एवं माङ्गलिक रूप है । महाभारत जैसे शास्त्रों में भी धर्म के विषय में कहा है कि-
न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः । एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥
जो कार्य अपनी आत्मा से प्रति कूल हो अर्थात्-जिन कार्यों से अपनी श्रात्मा को दुःख पहुँचता हो वे कार्य दूसरे प्राणियों के लिये भी उसी प्रकार दुःखोत्पादक होते हैं ऐसा सोच कर वैसे कार्य नहीं करना ही संक्षेप में धर्म का श्र ेष्ठ स्वरूप है । इसके सिवाय दूसरे धर्म तो अपनी २ इच्छा से प्रवर्तीये हुए हैं । धर्म का संक्षिप्त से सार समझाया --
सूरिजी ने बड़े ही मधुर वचनों से धर्म का महत्व बतलाया और कहा कि प्रकृतितः मनुष्य को श्रात्म कल्याण की अपेक्षा भौतिक सुखों की पिपासा अधिक रहती है किन्तु ये पौद्गलिक पदार्थ अस्थिर एवं सड़न, पड़न, गलन, विध्वंसन स्वभाव वाले हैं अतः इनसे मोह जोड़ना अपनी आत्मा को अपने आप धोखा देना है। सूरिजी की इस व्याख्यान शैली एवं समय सूचकता ने उनको इतना प्रभावित किया कि उन्होंने तत्काल ही अपने सब साथियों के साथ श्राचार्यदेव के पास में जैनधर्म अर्थात अहिंसाधर्म को स्वीकार कर लिया । एवं सूरिजी ने वर्द्धमान विद्या से सिद्ध किया ऋद्धि सिद्धि संयुक्त वासक्षेप दे कर उन वीर क्षत्रियों का उद्धार किया । तत्पश्चात् सूरिजी ने राव गौशलादि से पूछा कि महानुभावों अब आप किस श्रोर जागे । वीर क्षत्रियों ने कहा पूज्यवर ! हमको तो आज चिन्तामणि से भी अधिक गुरुदेव का शरणा मिल
धर्म का माहत्म्य
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