Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १०६०-१०८०
१ सुषमासुषमा-पारा चार क्रोडा कोड़ सागरोपम २ सुषमा-पारा
तीन
" ३ सुषम दुःखम-पारा दो , , ४ दुःखम सुषमा-पारा एक ,
में ४२००० वर्ष कम ५-दुखम-पारा
२१००० वर्षों का ६-दुःखमादुःखम-आरा
२१००० वर्षों का उत्सर्पिण काल के भी छ अारा है १-दुःखम दुःखमा पारा
२१००० वर्षों का २--दुःखम आरा
२१००० वर्षों का ३-दुःखम सुषम पारा
एक कोड़ा कोड़ सागरोपम ४२००० वर्ष कम ४-सुषम दुःखम आरा
दो कोड़ा कोड़ सागरोपम का ५-सुषम पारा
तीन " " " ६-सुषम सुषम आरा
चार , " " अवसर्पिण काल का पहला दूसरा और उत्सर्पिण काल का पांचवा छटा आर के मनुष्य भोगभूमि (युगल मनुष्य ) होते हैं । श्रवसर्पिण का तीसरा आरा के पिच्छला भाग में और उत्सर्पिण का चतुर्थ पारा के प्रारम्भ भाग में भोगभूमि मनुष्य काल दोष से कर्मभूमि बन जाते हैं तथा अवसर्पिण का चतुर्थ पंचम और छटा भाग तथा उत्सर्पिण का तीसरा दूसरा और पहला पारा के मनुष्य कर्मभूमि होते हैं
भोगभूमि मनुष्य-इनके अन्दर असी मीसी कसी कर्म नहीं होता है इन मनुष्यों का शरीर लम्बा और आयुष्य दीर्घ होती है उनके आवश्यकता के सब पदार्थ कल्पवृक्षों द्वारा मिलते हैं अपनी जिन्दगी के अन्त समय एक बार स्त्री संभोग कर एक युगल पैदा कर पहला या छटा पारा में ४९ दिन दूसरा या पांचवा भारा में ६४ दिन तीसरा या चोथा आरा में ८१ दिन की प्रति पालना कर वे स्वर्ग चले जाते हैं।
कर्मभूमि मनुष्य-इनके अन्दर असी ( तलवार-क्षत्री) मीसी ( साही-वैश्य ) कसी (किसान) हुन्नर उद्योग कला कौशल वगैरह सब कुच्छ होते हैं इनके शरीर आयुष्य क्रमशः कम होते जाते हैं धर्म कर्म करते हुए चार गति या मोक्ष भी जाते हैं तीर्थंकर चक्रवर्ति वासुदेव बलदेव वगैरह उत्तम पुरुष या साधु साध्वियों वगैरह इन कर्मभूमि में ही होते हैं इस प्रकार उत्सर्पिण अवसर्पिण के बारह आरा को एक काल चक्र कहते हैं और ऐसे अनन्त काल चक्रकों एक पुद्गल परावर्तन कहते हैं ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्तन भूत काल में हो गया है और भविष्य में भी अंत पुद्गल परावर्तन होगा जिसका श्रादि व अन्त कोई पतला ही नहीं सकता है कारण काल का एवं सृष्टि का आदि अनंत है ही नहीं।
किसी ने सवाल किया कि आप फरमाते हो कि केवली सर्वज्ञ होते हैं और वे भूत भविष्य और वर्तमान एवं तीनों काल को हस्तामल की तरह जानते हैं तो क्या केवली-सर्वज्ञ भी काल की एवं सृष्टि की आदि अन्त नहीं वतला सकते हैं?
केवली-~~-अस्ति पदार्थ को अस्ति कहते हैं और नास्ति पदार्थ को नास्ति कहते हैं पर नास्ति पदार्थ सूरीश्वरजी का तात्वीक व्याख्यान
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